Last modified on 28 नवम्बर 2015, at 04:11

ओ मेरी प्रियतमा / मुकेश चन्द्र पाण्डेय

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:11, 28 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश चन्द्र पाण्डेय |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ओ मेरी प्रियतमा !
तू कभी न होना मेरी आँखों से ओझल
कि तेरे न होने से घबरा कर बुझते दिये देखे हैं
मैंने अपने घर के..
तू कभी न होना मेरी आँखों से ओझल
कि बरसात की नब्ज़ टटोलता हूँ जब तेरे बिना
वो कमज़ोर है, आँखों से आ गिरती है, नमकीन मिजाज़।
तेरी आँखों के किनारे खड़ा हो के सोचता हूँ
गहरायी के बायस,
और उतरता चला जाता हूँ किसी महासागर की तहों तक
वहां प्रगाढ़ में पनपते जीवन में खुद को पाता हूँ उत्सवों में,
तेरे होंठ जो तरतीब से रखे हैं पत्तियों की मानिंद चेहरे पे
चूमने के ख्याल भर से उन्हें लाल हुआ जाता हूँ शर्म से
किसी भोर के सूर्य सा..
अपनी मुट्ठियों के सभी रंग फ़ोक आता हूँ आसमान पर..
तेरी हंसी गूंजती है मेरे एकांत लोक में,
और प्रतिध्वनित हो कर घुल जाती है हर कतरे में..
तेरी आवाज़ मिश्री सी उतरती है मेरी सांसों में..
और रक्तकणों के बहती कविता उतरती है पन्नो पे..
कंधे पर गिरते तेरे बालों पे फिसला हूँ
तेरी धड़कनों के सहारे से तेरे दिल तक पहुँचता हूँ
तेरी गर्दन पे मरता हूँ, तेरे कानो पर हौले से
अपनी साँसों से कहता हूँ,
"मुझे तुमसे प्रेम है"
ओ मेरी प्रियतमा !
तू कभी न होना मेरी आँखों से ओझल
कि दुनिया में कितना कुछ घट रहा है यूँ तो
भूगोल की सरहदों, इतिहास के गर्त,
विज्ञान की उन्नति, अर्थ की बहस
इन सब के प्रति जब कहने को कुछ नहीं होता और
मैं भावशून्य हो जाता हूँ
तब मात्र
इतना कह पाता हूँ कि
"मैं प्रेम में हूँ"