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गुलमोहर / राकेश खंडेलवाल

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शची के कान का झूमर छिटक कर आ गिरा भू पर
या नख है उर्वशी के पाँव का जो फूल बन आया
पड़ी है छाप कोई ये हिना रंगी हथेली की
किसी की कल्पना का चित्र कोई है उभर आया

चमक है कान की लौ की, लजाती एक दुल्हन की
उतर कर आ गई है क्या, कहीं संध्या प्रतीची से
किसी पीताम्बरी के पाट का फुँदना सजा कोई
कहीं ये आहुति निकली हुई है यज्ञ-अग्नि से

किसी आरक्त लज्जा का सँवरता शिल्प? संभव है
जवाकुसुमी पगों की जम गई उड़ती हुई रज है
या कुंकुम है उषा के हाथ से छिटका बिखर आया
या गुलमोहर, लिये ॠतुगंध, शाखों पर चला आया