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समय / अर्चना कुमारी

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आवाजें किनारों से उतर कर
पानी में जा मिली
तुम तक नहीं पहुँची
सुना है पानी आवाज नहीं लौटाता
शायद इस कारण
या व्यवहारिकता सिखाती है
मौन चुनना,,तमाशा देखना

दो कदम पीछे खड़े होकर
डूबने का तमाशा देखते शायद
या दे देते आखिरी झटका भी
पर भूल जाते हो न जाने क्यों
कि साथ खड़े हो उठेंगे अनायास ही
कुछ अजनबी...
कि लौट आएगी जिन्दगी
पहाड़ की ऊँचाई से
भूल जाएगी चेहरा मेरा
पहाड़ों के पाँव में बहती नदी...

समय ने आँखें वहम की खोल दी
कन्धों का बोझ भी हल्का किया
मन कर दिया कठोर........

हर 'न' के बाद सनसनाती है पीठ देर तक
हृदय में मचता है प्रश्नों का कोलाहल
कोई धूँध फैलती है दृष्टि की क्षमता तक
कि अक्षम साँस टपक जाती है पिघलकर
टूटने से पहले......

याद आते हैं कुछ अनजाने चेहरे
जिनका अंजानापन गहरा होता है
अपनेपन से...


समय....
घाव भी
मरहम भी
दवा भी दुआ भी !!!