किसी कवि की तरह तेज़ था वह अपराधी
जिसने एक झूमते हुए वृक्ष को देखा
और कहा
देखो देखो एक मेज़ झूम रही है
मेज़ पर ही दिखे उसे फल और फूल
चहकती हुई चिड़ियाँ उसे मेज़ पर ही दिखीं
झूम रहे वृक्ष पर
आखिर उसने डाल दिया मेज़पोश
मेज़पोशों से नफरत है मुझे
नंगी ही रहने दो मेरी पीठ
उस पर धारियां हैं
धारियों में उम्र है मेरी
एक एक धारी एक एक बरस की है
ऋतुएँ बदलती हैं तो
अब भी इन धारियों में होती है सिरहन
बारिश में तो रेशा रेशा ऐंठता है
पीठ मेरी नंगी ही रहने दो
शायद किसी दिन और दूसरी तरह का कवि
पहचान ले और ले जाये कविता से बाहर
भले ही घसीटता ले जाये अदालत की सीढ़ियों पर
और कहे की जज साहब देखो
गिनो इसकी धारियां
और गिनो इसमें ठुकी हुई कीलें
लेकिन क्या किसी जज को दिखेंगे
लहराते हुए चाबुक और झुकी हुई पीठों पर
उभरती हुई धारियाँ इन धारियों में
क्योंकि जज साहब के पास भी तो
होगी एक मेज़
और उस पर बिछा होगा मेज़पोश