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घर में ही घर चुप रहते हैं / यश मालवीय

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नींव के पत्थर चुप रहते हैं
हम तो अक्सर चुप रहते हैं

खिड़की दरवाज़े दीवारें
देखें खिंची हुई तलवारें

डोला करती हैं छायाएँ
घर में घर चुप रहते हैं

अबाबील सी हर सच्चाई
दिखकर छुप जाती ऊँचाई

ख़ुद हैरत में हैं तकरीरें
बाहर भीतर चुप रहते हैं

रेतघड़ी सुनसान सजाए
सिर्फ़ रात का समय बजाए

खाते हैं धोखे पर धोखा
आँसू पीकर चुप रहते हैं

सड़क पहाड़ों की ज्यों टूटे
सपने पड़ जाते हैं झूठे

ये कैसा मौसम आया
मस्त कलंदर चुप रहते हैं

पानी का खारापन चखते
साहिल मुँह पर ऊँगली

लहरों की सीना ज़ोरी पर
नदी समंदर चुप रहते हैं

पर्वत सागर नदियों झीलों
चलते जाते मीलों मीलों

सबसे जीते ख़ुद से हारे
कई समंदर चुप रहते हैं

जलती बुझती हैं कंदीलें
चुभती सन्नाटे की कीलें

मन कुछ कहता नहीं कि मन में
उठे बवंडर चुप रहते है