सिनेमा एक कथा है
कथा से परे भी
कोई कथा संपूर्ण नहीं होती
इस लिए एक कथा जहाँ खत्म होती है
दूसरी वहीं से शुरू हो जाती है
कथाएँ परस्पर जुड़ी होती हैं
कई बार एक दूसरे को काटती हुई
क्या कोई हिस्सा अपना भी कट जाता है ?
ज़रूर कटता होगा वरना उस को देखते हुए तक़लीफ़ क्यों होती ?
अफवाहें, किंवदंतियाँ , असलियत , तारतम्य : सब को जोड़ दें तो कोई कथा बनती है
शायद बनते- बनते बनती है
कई बार बिगड़ भी जा जाती है
बिगड़ती हुई बनती है, बनती हुई बिगड़ती है
यही खटमिट्ठापन तो उसे जीने लायक़ बनाता है जिसे कथा कहते हैं
बिल्कुल सिरके की तरह जिसमे थोड़ा गुड भी हो
किसी की कथा अपनी है , अपनी कथा किसी दूसरे की
एक अभिन्नता में भिन्नता , भिन्नता में अभिन्नता
कथाएँ केवल फिल्मों में नहीं होतीं
हमारी कथाएँ स्वयं सिनेमा की रील हैं
स्मृति में..
अनुभव के अगाध में ! ...