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भूमिका / डॉ. अजय तिवारी

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भूमिका

                                                                  
                                                                    = भूमिका =

     प्रदीप मिश्र लगभग तीन दशकों से कविता लिख रहे हैं। ‘उम्मीद’ उनका दूसरा संग्रह है। इसके पहले ‘फिर कभी’ नामसे एक संग्रह आया था। इससे ज़ाहिर है कि प्रकाशन के प्रति उनमें वैसी ललक नहीं है जो आजकल युवा पीढ़ी मे झलकती है। बल्कि कुछ हद तक उदासीनता है। यह संग्रह मेरे आग्रह पर तैयार हुआ। जितने लापरवाह प्रदीप संग्रह तैयार करने में हैं, उतने ही संग्रह को रूपरेखा देने में भी हैं। यह संग्रह बहुत सुनियोजित नहीं है तो इसका दोष कुछ हद तक मुझ पर है। फिर भी, काविताएँ अपनी पहचान खुद बनाएँगी, इसलिए योजना की त्रुटियाँ उतना ध्यान शायद न खींचेंगी।
     प्रदीप कवि हैं लेकिन कविता उनकी प्राथमिकता नहीं है। हिन्दी (या साहित्य) के अलावा वे ज्योतिर्विज्ञान और अभियांत्रिकी जैसे अत्यंत भिन्न अनुशासनों से सम्बद्ध हैं। यह कहना कठिन है कि परमाणु अभियांत्रिकी की सरकारी सेवा और ज्योतिर्विज्ञान का अभ्यास एक-दूसरे के आड़े किस सीमा तक आते हैं, लेकिन दोनों मिलकर कविता का समय अवश्य छीनते हैं, यह प्रदीप की कविताओं को पढ़कर निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है। साथ ही, उनका वैज्ञानिक उनकी कवि-दृष्टि के व्यवहार में सहायक भी बनता है। उनके पास किसी भी समस्या के मर्म में घुसकर उसका विश्लेषण करने की योग्यता है; इसका बहुत कुछ श्रेय उनकी सजग, प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और उनके वैज्ञानिक मिज़ाज को है। लेकिन उनका ज्योतिर्विज्ञान भी कविता की सहायता करता है, इसका उदाहरण यह है कि प्रदीप यह देखने में सक्षम हैं कि—
                 ‘नास्तिक के हृदय में रहती है आस्था।‘
      यह पहचान अंधविश्वासियों और उपभोक्तावादियों से ‘नास्तिकता’ को अलग करती है। आस्था का संबंध भावना, विश्वास और स्वप्न से है। वह समय बीत गया जब प्रगतिशील और मार्क्सवादी लेखक सौंदर्य के साथ-साथ आस्था पर बात करते थे। आज कम्युनिस्टों में भी ऐसे नास्तिक कम बचे हैं। लेकिन दाभोलकर जैसे नास्तिक हैं जो विश्वास के लिए जान दे सकते हैं। यह संयोग की बात नहीं है कि दाभोलकर के हत्यारे वही हैं जो एक ही साथ अंधविश्वास और उपभोक्तावाद के रास्ते पर चलते हैं! प्रदीप की इन कविताओं के लिखे जाते समय दाभोलकर की हत्या भले न हुई हो, लेकिन उनकी कविता अंधविश्वास और उपभोक्तावाद के दोनों मोर्चों पर साथ-साथ लड़ती है। इसलिए वह संघर्षधर्मी तेवर न अपनाकर भी वह जुझारू मनुष्य के साथ खड़ी होती है; निराशा और अवसरवाद से दूर, आशा, विश्वास और संघर्ष की चेतना जगाती है। इसी कविता में उनका मूल कथ्य यह है कि बुरे दिनों मे अच्छे दिनों की संभावना मौजूद रहती है।
      व्यवसायिकरण, भूमंडलीकरण और संप्रदायीकरण के दौर में संभावना या उम्मीद की बात करना हौसले का विषय लग सकता है। वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों और उनके नेताओं के पतन को देखते हुए यह हौसला बहुत अटपटा मालूम होता है। लेकिन यह बात भी दावे से कही जा सकती है कि आज के दौर की चुनौतियों का सामना करने, उन चुनौतियों का प्रतिकार करने की सबसे समर्थ युक्तियाँ वामपंथी दायरे के कवि ही प्रदर्शित कर रहे हैं। आप चाहे राजेश जोशी को देखें, अरुण कमल को देखें, बद्री नारायण को देखें, लीलाधार मंडलोई को देखें या नीलेश रघुवंशी को देखें। इसका कारण यह है कि ये कवि अपनी भावना में रँगकर वास्तविकता को विकृत नहीं करते बल्कि एक दूसरे से स्वतंत्र दिखने वाली स्थितियों की आंतरिक संबद्धता को पहचानते हैं। प्रदीप इसी पंक्ति के कवि हैं। उनके यहाँ अपने अग्रजों-सहधर्मियों की भाँति असम्बद्ध स्थितियाँ आपस में स्वतंत्र और संबन्धित रूपों में एक साथ आती हैं। इसके लिए वे अनेक प्रकार की युक्तियों का प्रयोग करते हैं। एक उदाहरण देखें।
      ‘नींद’ कविता में प्रदीप विभिन्न अनुभव-स्तरों का संकलन करते हैं। सबसे पहले बच्चे की नींद है, ‘‘जिसे पारियाँ खिला रही हैं” और “मुस्कान उसके चेहरे पर/ सुबह की किरणों की तरह खिली हुई है’’। बच्चा बड़ा होगा; उस नौजवान की नींद भी है, “जिसकी आँखों में करवट बादल रही है/ एक सूखती हुई नदी”। यह देखने में सरल-सा बिम्ब है लेकिन उसकी अंतर्वस्तु सरल नहीं है। नदी सूख रही है, फिर भी वह करवट बादल रही है—उम्मीद बची हुई है! बूढ़ा होते-होते उसकी आँखों में “एक भुतहा खँड़हर” बचा रहता है! इनमें कोई बिम्ब चमत्कृत नहीं करता बल्कि हर बिम्ब अनुभव-प्रक्रिया को संघनित करता है।
       कविता में केवल आयु का अंतर नहीं है। युवती भी है जिसके सपनों में “समुद्र पछड़ खा रहा है”। समुद्र का पछड़ खाना दिशाहीन गति का द्योतक है जो हमारे समाज में युवती की स्थिति की विडम्बना का परिचय भली-भाँति दे देता है1 इतना ही नहीं, प्रदीप की संवेदना में उस किसान की नींद भी है जो “बिवाई की तरह फटे खेतों में/ हल जोतकर लौटा है”। देखने की बात है कि प्रत्येक चरित्र से बिम्ब का संबंध आंतरिक है। भाव, अनुभव पर आधारित। इसीलिए मार्मिक है। विश्वसनीय है। आयु, लिंग, वर्ग—विविध पक्षों का समावेश प्रदीप के यथार्थ-बोध को इकहरा नहीं रहने देता। यह कहा जा सकता है कि इतनी सामग्री के साथ प्रदीप अपने समय का वृत्तान्त निर्मित कर सकते थे लेकिन नहीं करते। यही इस बात का उदाहरण है कि कविता उनकी प्राथमिकता नहीं हो पाती। सभी दायित्वों की तरह कवि-कर्म भी उनका दायित्व है, जिसका निर्वाह उन्हीं को करना है।
     अंतस्संबद्धता का दूसरा रूप ‘कोचिंग सेंटर’ सिरीज़ की तीन कविताओं में दिखाई देता है। एक ओर व्यावसायिकता, भूमंडलीकरण और नवधनी वर्ग की संस्कृति, दूसरी ओर पिछड़ गए लोगों की वस्तुस्थिति—दोनों की विडम्बना का अच्छा चित्रण इस कविता में हुआ है। युवाओं के सामने उपस्थित संकट, जिसका प्रतीक सूखती नदी थी, संभावनाओं का अर्धसत्य, जिसका प्रतीक करवट है, और व्यवसाय की झपटमारी, जो सपनों का व्यापार करने में कुशल है और संकट से जूझते युवाओं से भी अपना मुनाफा निचोड़ लेता है, इन बातों को प्रस्तुत करते समय प्रदीप यह नहीं भूलते कि इस परिदृश्य का दूसरा पक्ष भी है—उस युवा का जिसकी स्थिति नहीं बदलती। कहने के ढंग में सादगी और विषयवस्तु में जटिलता का सधा हुआ विन्यास प्रदीप की विशेषता है। जो लड़का इंजीनियरिंग की परीक्षा में टॉप करता है, उसकी तस्वीर होर्डिंग में टँगती है, कोचिंग सेंटर वाला करोड़ों कमाता है, लड़का विदेश जाकर धीरे-धीरे माँ-बाप को भूल जाता है, कोचिंग सेंटर की होर्डिंग पर दूसरी तस्वीर आ जाती है, फिर करोड़ों की कमाई होती है, “माँ-पिता छटपटा रहे थे/ तलाश रहे थे अपना बच्चा’, लेकिन वह बड़ा आदमी बन गया था, अब “उसके जीवन में सिर्फ डॉलर था और उसका बवंडर/ इस बवंडर में माँ-पिता और जन्मभूमि सब उड़ गए थे।“
      बेशक, प्रदीप बहुत ‘पिछड़ी’ चेतना के कवि हैं, उनके लिए मानवीय संबंध और देशप्रेम अब भी अर्थ रखते हैं! भूमंडलीकरण द्वारा उपस्थित संभावनाओं को वे इन्हीं कसौटियों पर परखते हैं। इस विश्व-मानव के समांतर वह बच्चा है जो होर्डिंग पर अपने हमउम्र बच्चे का नाम जोड़-जोड़ कर पढ़ता है और मुस्कुरा कर ‘वाह बेटा’ कहता है, फिर खखार कर थूकता है और चाय पहुँचने चल देता है। संभावना और विवशता, संपन्नता और वंचना, दोनों एक साथ हैं, उन्हें एक ही प्रक्रिया जन्म देती है। वे प्रकटतः अलग हैं, इसलिए अलग कविता के रूप में हैं; दोनों एक प्रक्रिया के अभिन्न पहलू हैं, इसलिए एक कविता के सम्बद्ध खंड हैं। सादगी के बावजूद प्रदीप का शिल्प-विन्यास आंतरिक तर्क से निर्मित होता है।
       हमारे समय ने सबसे बड़ी विडम्बना यह उत्पन्न की है कि जिन चीज़ों को संभावना और मुक्ति की तरह देख-अपनाया जाता है, वे ही विवशता और नियति की सृष्टि करती हैं। इसका एक उदाहरण सौंदर्य उद्योग है। किसी समाज या प्रक्रिया की मानवीयता परखने की एक कसौटी यह होती है कि स्त्री और दलित समुदाय को वह किस सीमा तक मुक्त करती है। सौंदर्य उद्योग का एक पहलू का चित्रण प्रदीप ने ‘रैम्प पर चलने वाली लड़कियाँ’ कविता में किया है। शीर्ष पर पहुँचने का सपना लिए जो लड़कियाँ ग्रीनरूम से निकालकर रैम्प पर आती हैं, वे कैटवाक के बाद वापस ग्रीनरूम पहुँच जाती हैं; प्रदीप इसे उनके नियति की विडम्बना का प्रतीक बना देते हैं,
            जज की निगाहों से बाज़ार तक
            रैंप पर चलने वाली लड़कियाँ
            चलते-चलते कहीं नहीं पहुँच पातीं
            हर बार ग्रीनरूम से निकालकर
            ग्रीनरूम में पहुँचनेवाली इन लड़कियों को
            आम की गुठली समझता है बाज़ार
            बाज़ार सदियों से आम का शौकीन रहा है।
      जो लोग बाज़ार की खाते और बाज़ार की बजते हैं, वे अपना भूतपूर्व मार्कस्वाद उतरकर अभूतपूर्व उत्तरआधुनिक (अवसरवादी) बनकर दावा करते हैं कि बाज़ार द्वारा देह का आखेट ही स्त्री की सच्ची मुक्ति है क्योंकि स्त्री बाज़ार के खेल में अपनी शर्तों पर हिस्सा लेती है! वे इस विडम्बना के प्रति जान-बूझकर अनभिज्ञता प्रकट करते हैं कि बाज़ार की शर्तें उसके स्वामियों द्वारा तय होती हैं, हिस्सेदारों द्वारा नहीं। प्रदीप ने सरलीकृत ढंग से ही सही, समस्या पर उँगली राखी है, यह उसकी कवि-दृष्टि की विशेषता है, भले ही उसके कलात्मक निर्माण में वह शक्ति न आई हो।
        भूमंडलीकरण के दौर की विशेषता यह है कि उसने वर्ग विरोधों को वैश्विक रूप दे दिया है और राष्ट्रीय सीमाओं को विखंडित कर दिया है; उसने एक ओर साइबर स्पेस के जरिये असीम विस्तार उपस्थित कर दिया है, दूसरी ओर धर्म-नस्ल-जाति-लिंग आदि की अकल्पनीय संकीर्णताएँ पुनर्जीवित कर दी हैं; उसने सर्वातिशायी ताकत और असमर्थता, प्रचंड आत्मविश्वास और घुटनभरी अत्महत्या साथ-साथ उत्पन्न की है। ‘ग्लोब...ग्लोब...ग्लोबलाइज़ेशन’ और ‘वायरस’ कविताओं में प्रदीप ने इन प्रक्रियाओं को काफी बेहतर ढंग से देखा है। भूमंडलीकरण ने ‘ग्लोबलाइज्ड युवकों’ की ऐसी युवा पीढ़ी विकसित की है जो देखने में सम्मोहक, आकर्षक, जादूगर या कारीगर है लेकिन तत्वतः अपराधी है! दिलचस्प बात यह है कि उसे “खुद नहीं मालूम/ उसके पैकेज में शामिल है अपराध/ उसका अपराध/ किसी न्यायालय में नहीं हो सकता सिद्ध/ संभ्रांत वर्ग उसके आगे नतमस्तक”!
      प्रदीप की दृष्टि भावुक नहीं है इसलिए वह स्थिति की जटिलता को पहचानता है। वह इन युवाओं को दोषी नहीं बनाता। वे तो वैश्विक ताकतों के हाथ में अचेतन हथियार हैं। भूमंडलीकरण ने उसे वैश्विक अवसर दिये हैं और उसकी राष्ट्रीयता छीन ली है; वह ‘विकासशील देश का विकसित युवक है’ लेकिन उसमे समाज की कोई चेतना नहीं है; वह साधन-संपन्नता की उपज है और सुविधाओं के संसार का भोक्ता है। उसके समांतर है वह ‘मास्टर’ जो किसानों की अत्महत्या, फुटकर विक्रेताओं की समूहिक मौत और कुएँ में फेरीवालों की छलांग की खबरों से व्यथित है! दोनों वास्तविकताओं को आमने-सामने रखकर प्रदीप स्थिति को प्रक्रिया में परिणत करते हैं इसीलिए अत्यंत सरल, कभी-कभी सरलीकृत होने पर भी उनका चित्रण संवेदनपूर्ण और विश्वसनीय होता है। ‘ग्लोबलाइज्ड युवक’ और ‘मास्टर’ के प्रतीक सार्थक हैं।
       भूमंडलीकरण का दूसरा पक्ष ‘वायरस’ कविता में है। पिछली कविता में वर्तमान की दो स्थितियाँ एक-दूसरे के सापेक्ष रखी गयी हैं, इसमें वर्तमान को अतीत के सामने रखकर एक अलग आयाम उद्घाटित किया गया है। ऐतिहासिकता के बिना संबद्धता मूर्त नहीं होती। इन ग्लोबलाइज्ड युवकों की न कोई जाति है, न राष्ट्र और धर्म, लेकिन उनका प्रसार सभी में है। इसीलिए उनकी संस्कृति को वायरस कहा गया है। वायरस जहाँ लगते हैं, उसे पंगु कर देते हैं। जिस जाति में लगते हैं, उसे तहस-नहस करते हैं; जिस राष्ट्र में लगते हैं, उसे दुनिया के नक्शे से मिटा देते हैं; “जिस धर्म में लगते हैं/ उसेमनुष्यता के खिलाफ कर देते हैं”!
     इस तरह के खतरनाक वायरस पहले भी थे लेकिन उनकी जगह समाज में थी न सभ्यता में। बल्कि “उनके विरुद्ध होती थीं सारी सभ्यताएँ”। अब इतना विकास हो गया है कि “वे जिस धर्म की ध्वजा उठाते हैं/ उस धर्म पर लोग गर्व करते हैं”। यह कहा नहीं गया है कि जिस धर्म को वे तिरस्कृत करते हैं उसे अपराधी छवि मिल जाती है। ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का संबंध भूमंडलीकरण से है, इसे पहचानने में प्रदीप से चूक नहीं हुई है। संभ्रांत वर्ग पहले ही उनके आगे नतमस्तक था, नयी सभ्यता ने उनके प्रभाव को पूरे समाज और विश्व में फैला दिया है। वर्ग समाज का यह नया चरण है जहाँ पूंजी की शक्तियाँ जनमत को अपने मनोनुकूल ढलने की सारी ताकत और तरकीबों से लैस हैं। अपने सरलीकरणों कके बावजूद प्रदीप इन प्रक्रियाओं को उभार पाये हैं, यह उनके कवि-कर्म का औचित्य है।
      यहाँ यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि यथार्थ के सूत्रों को बहुत दूर तक फैलता हुआ प्रदीप देखते हैं इसलिए एक सूत्र के अलग-अलग पहलू विभिन्न कविताओं में विद्यमान हैं। मसलन, ‘विज्ञापन’ शीर्षक तीन कविताओं में भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक पक्षों का विश्लेषण है; ‘ईश्वरी सत्ता पर शोधपत्र’ जैसी कविताओं में उसके धार्मिक-आध्यात्मिक पक्ष पर विचार है। उनपर चर्चा करना एक स्वतंत्र विषय है। जिस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह है जनसाधारण में प्रदीप का विश्वास। प्रदीप ने अपनी काव्यायात्रा जनवादी साहित्यन्दोलन के उभर के समय शुरू की थी। जिस समय जनवादी आंदोलन का शीर्ष नेतृत्व वर्ग और जातीयता (सांस्कृतिक इकाई के रूप में भाषाई जातियों) का परित्याग कर चुका है, प्रदीप उस समय भी अस्मिता की राजनीति से अलग, वर्ग और राष्ट्र (जाति) की सत्ता को स्वीकार करते हैं।
     आज के दौर में इन अवधारणाओं में जटिलता आ गयी है। अब सीधे-सीधे वर्ग-संघर्ष का पुराना रूप नहीं लागू होता। प्रदीप इस बारे में सचेत हैं। ‘ठीक समय’ कविता इसका अच्छा उदाहरण है। समय का तालमेल पूरी तरह गड़बड़ा गया है—समाज के भीतर की अफरा-तफरी, उसके पीछे की विवशता, नए वैश्विक दबाव और उनके चलते आने वाली विडंबनाएँ—सब बड़े साढ़े हुए रूप में, किन्तु लगभग निरायास ढंग से अभिव्यक्त हुए हैं। यहाँ आज के समय के अनेक अंतर्विरोध आपस में गुंथे हुए हैं। घंटाघर (शासकीय समय), श्रमिक का समय, सम्पन्न आभिजात का समय—सब आपस में बेमेल हैं। सब एक समाज के अंग हैं लेकिन सबका समय एक नहीं है! इस अंतर्विरोध पर कोढ़ की खाज बनकर एक नया अंतर्विरोध उभर आया है। बनिए की ‘देशी घड़ी’ सेल्समैन की ‘विदेशी घड़ी’ से पिछड़ती जा रही है! बनिया ऐसा सेल्समैन नहीं बन पाया; सेल्समैन ने बनिए वाला काइयाँपन ले लिया, मुरव्वत नहीं ली!
     इस तरह एक निरंतरता में चीजों को देखना स्थितिमूलक संवेदना नहीं है। पहले रेडियो पर समाचारों से पहले समय बताया जाता था, उससे धनी लोग अपनी घड़ी मिलाते थे; “बकियों के पास न तो घड़ी थी न रेडियो/ इसलिए उनका समय कभी ठीक नहीं होता था।“ इनके बीच एक पोथी-पत्रा वाले ‘पंडितजी’ होते थे, उनके पंचांगों ने भी ठीक समय कभी नहीं निकाला! पूंजी कि वर्तमान सत्ता के आगे ‘नक्षत्र और तारे भी गड़बड़ाने लगे हैं’, ऐसे में उम्मीद कहाँ है?
               चलिये दादी-अम्मा के पास/ सुनते हैं कोई किस्सा कहानी/ मिल जाय शायद/ किसी राजा के तहखाने में बंद ठीक समय।
इसके प्रतीक-विधान में कोई जटिलता नहीं है। शायद इसलिए कि प्रदीप हुनरमंद पाठक के लिए नहीं, साधारण लोगों के लिए लिखते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि शिल्प और भाषा का सबंध कवि की संवेद्य विषया-वस्तु से और उसके लक्षित पाठक से एक साथ होती है।
      प्रदीप की विषय-भूमि सीमित नहीं है। उसमे डूबते नगर हैं, प्रेम और दाम्पत्य है, विज्ञान और धर्म है, एक कवि की तरह शब्द के आकांक्षा भी है। कहीं कुछ कौतुक है, जैसे फाउंटेन पेन से कविता लाखने की समस्या, आदि। हर जगह प्रदीप अपने प्रयोग में सफल ही हुए हैं, ऐसा नहीं है। उनके सरोकार सच्चे हैं, उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक है, उनका स्वर विश्वसनीय है, यह महत्वपूर्ण है। वे अगर इस विडम्बना को देखने में सक्षम हैं कि पत्नियों की आग चुराकर मशाल बने फिरते हैं और उनका प्रेम चुराकर हम प्रेमिकाओं पर न्योछावर करते हैं, तो यह देखने की समवेदनशीलता भी उनमें है कि “सबकुछ होते हुए भी/ कुछ नहीं होने की तरह/ वे उपस्थित रहती हैं हमारे जीवन में/ सबकुछ होने की तुनक में/ हम अनुपस्थित रहते हैं उनके जीवन से।“
      प्रदीप की समवेदनशीलता, अंतससंबंधों को देखने की उनकी दृष्टि और ऐतिहासिक चेतना मिलकर उन्हें आज के भयावह समय में भी निराशावादी और ‘सैनिक’ नहीं बनने देते। इसीलिए वे परिहास के स्वर में भी अपना यह भरोसा अभिव्यक्त कए देते हैं कि “आस्वाद उस हवा का जो ऐन डैम घुटने से पहले पहुँच गयी फेफड़ों में।“ और, “विश्वास उस स्वप्न का जो नींद टूटने के बाद भी बना रहा आँखों में।“ इसलिए प्रदीप की कविता अपनी सारी सीमाओं और सरलीकरणों के रहते हुए भी न तो निराशा में ले जाति है, न काल्पनिक संसार में। वह सभी चीजों का अनुपात पहचानती है। उसके लिए स्वप्न अछूत है न यथार्थ, भावना अछूत है न विचारधारा, वर्तमान अछूत है न इतिहास-बोध, कलाकारिता अछूत है न सादगी। अगर वह कविता को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल कर सके तो उसकी निजी पहचान अधिक समृद्ध होगी, इसमे संदेह नहीं।
नयी दिल्ली, 17 जनवरी, 2015
अजय तिवारी