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फ्लैप फ्रंट / राजेश जोशी

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फ्लैप फ्रंट

प्रदीप की कविता सृजन की ऊष्मा के एक ऐसे विराट विस्फोट की कामना करती है जिसमें सृजन की ऊष्मा पूरे अंतरिक्ष में फूटकर उसी तरह बिखर जाये जैसे एक किसान खेतों में बीज बिखेरता है। यह ऐसी कामना है जिसमें धरती कभी आँख से औझल नहीं होती । जिसमें न हमारे समय के सवाल अदेखे रहते हैं न हमारे समय की विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ । प्रजापति की तरह कवि अपनी कल्पना में इस पूरी सृष्टि को अपने ढंग से उलट पुलट देना चाहता है । हिमालय को समुद्र में और समुद्र को हरे भरे पहाड़ में बदल देना चाहता है । उसकी कामना है कि पेड़ पौधे मनुष्यों की तरह चलें फिरें । चिडिय़ाँ समुद्र में तैरें और मछलियाँ उड़ान भरें । वह चाहता है कि नई नई भाषा निर्मित हो और नए नए शब्द आयें जीवन में ।
प्रदीप की ये कविताएँ हमारे समय की बेचैनी से भरी कविताएँ हैं । एक ऐसे समय में जहाँ सारे जीवन मूल्य और भाषा बाजार के आक्रमण के सामने बार बार पराजित होते महसूस हो रहे हों वहाँ नई भाषा और नए श4दों और कविता लिखने के लिए एक नई कलम की कामना में वस्तुत: अपने समय से मुटभेड़ न कर पाने या पूरी ताकत से न कर पाने की असमर्थता को लक्षित किया जाना चाहिये । अवमूल्यन और विस्थापन की त्रासदी को ये कविताएँ अलक्षित नहीं करतीं । लेकिन ये किसी हताशा , निराशा की नहीं उम्मीद की कविताएँ हैं । यह कोई वायवीय उम्मीद नहीं है , उसकी निगाह उन लोगों की तरफ़ भी है जो उम्मीद की लौ को अपनी हथेलियों में सहेजे हुए हैं , और उन लोगों पर उसको भरोसा है ।
इस उ6मीद की कविता को लिखने के लिए उसे एक ऐसी कलम चाहिये जिसमें स्याही की जगह पंख हों और चिडिय़ों से भरा आकाश हो और इस कलम की निब स्टेथोस्कोप की तरह टिकी हो समय की नब्ज़ पर ।
ये कविताएँ हमारी वास्तविकताओं और सपनों का आख्यान हैं ।

राजेश जोशी