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ग्रामदेवता / शिरीष कुमार मौर्य

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वे उस तरह अप्रमाणित, साम्प्रदायिक और हिंसक नहीं हैं
जिस तरह इस दुनिया के
हमारे ईश्वर

कभी वे थे सचमुच के ज़िन्दा इंसान
हमारी ही तरह
रक्त और मांस के बने
वायवीय नहीं थी उनकी उपस्थिति

सैकड़ों बरस पहले वे आए
किन्हीं अनाम दुश्मनों से बचते-बचाते
जीवन की खोज में
मुट्ठी भर लोगों के साथ
इन अगम-अलंघ्य पहाड़ों पर
उनकी वह दुर्धर्ष जिजीविषा खींच लाई
उन्हें यहा
उन्होंने पार की नदियां
अपनी बांहों के सहारे

खोजे
जीवनदायी गाड़-गधेरे-सोते

भेदा
किसी तरह मृत्यु का वह सूचीभेद्य अन्धकार
और आ बसे इन दुर्गम जंगली लेकिन निरापद जगहों में
अपने कुनबों के साथ

राज नहीं किया उन्होंने बस साथ दिया अपने लोगों का
और न्याय किया
संकट के कठोरतम क्षणों में भी
इस तरह वे नायक बने मरने के बाद
गुज़रे सैकड़ों साल
उनकी प्रामाणिक छवियां धुंधलाती गईं
जन्म लेते गए मिथक
बनती गईं लोकगाथाएं और किंवदन्तियां
जिनमें
आज भी वे रहते हैं
अपने पूरे सम्मान और गरिमा के साथ

गांव-गांव में बने हैं उनके थान
ढाढ़स बंधाते हारते हुए मनुष्यों को
दिलाते हुए याद उस ताक़त की जिसे हर हाल में
हम जीवन कहते हैं

वाकई
समय भी एक दिशा है
जहां आज भी दिख जाएंगे वे
लकड़ी चीरते
पीठ पर मिट्टी ढो मेहनत कर सीढ़ीदार खेत बनाते
बुवाई करते
काटते फसलें
मनाते अपने उत्सव-त्यौहार
और साथ ही
धार लगाते अपनी तलवारों को भी किन्हीं अमूर्त दुश्मनों के
खिलाफ

वे आज भी लौट आते हैं
दुख की मारी देहों में बार-बार
कभी होते हुए क्रुद्ध
तो कभी करते हुए विलाप

वे क्यों लौट आते हैं
बार-बार?

मैं आपसे पूछता हूं
उनके इस तरह लौट आने को क्या कहेंगे आप?