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न समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है / गौतम राजरिशी

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न समझो बुझ चुकी है आग, गर शोला न दिखता है
दबी होती है चिंगारी, धुआँ जब तक भी उठता है

बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है

गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
 हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है

बना कर इस क़दर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है

चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है

वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है

बता ऐ आस्माँ कुछ तो कि करने चाँद को रौशन
तपिश दिन भर लिये सूरज भला क्यूँ रोज़ जलता है

कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है

किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में
ये क़िस्से ज़ेह्‍न में माज़ी के रह-रह कौन पढ़ता है

कई रातें उनिंदी करवटों में बीतती हैं जब
कि तब जाकर नया कोई ग़ज़ल का शेर बनता है





(कथन, अप्रैल-जून 2010)