Last modified on 4 जून 2016, at 13:35

गवनहार आजी / केशव तिवारी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:35, 4 जून 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पूरे बारह गाँव में
आजी जैसी गवनहार नही थी
माँ का भी नाम
एक दो गाँव तक था
बडी बूढ़ियाँ कहती थी कि
मछली को ही अपना गला
सौप कर गई थी आजी
पर एक फ़र्क था
माँ और आजी के बीच
आजी के जो गीतो में था
वह उनके जीवन में भी था
माँ के जो गीतो मे था
वह उनके जीवन से
धीरे-धीरे छिटक रहा था
उस सब के लिए
जीवन भर मोह बना रहा उनमें
जांत नही रह गए थे पर
जतसर में तुरन्त पिसे
गेंहू की महक बाक़ी थी
एक भी रंगरेज नही बचे थे
पर केसर रंग धोती
रंगाऊ मोरे राजा का आग्रह बना रहा
कुएँ कू्ड़ेदानो मे तब्दील हो गए थे
पर सोने की गघरी और रेशम की डोरी
के बिना एक भी सोहर
पूरा नही हुआ
बीता-बीता ज़मीन बँट चुकी थी
भाइयों-भाइयेां के रिश्तो मे
खटास आ गई थी
फिर भी जेठ से अपनी
झुलनी के लिए
ज़मीन बेच देने की टेक नही गई
माँ के गीतो को सुन कर लगता था
जैसे कोई तेज़ी से सरकती गीली रस्सी को
भीगे हाथो से पकड़ने की कोशिश कर रहा है।