Last modified on 10 जून 2016, at 12:14

बेदख़ल किसान / आरसी चौहान

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 10 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आरसी चौहान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वो अलग बात है
बहुत दिन हो गए उसे किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है
लहलहाते खेतों में
गेहूँ की लटकती बालियाँ
चने के खेत में
गड़ा रावण का बिजूखा
ऊख तोड़कर भागते
शरारती बच्चों का हूजुम
मटर के पौधों में
तितलियों की तरह, चिपके फूल

याद आती है
अब भी शाम को खलिहान में
इकट्ठे गाँव के
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से
सजी चौपाल
ठहाकों के साथ
तम्बू से तने आसमान में
आल्हा की गूँजती हुई तानें
हवा के गिरेबान में पसरती हुई
चैता-कजरी की धुनें

खेतों की कटाई में टिडि्डयों-सी
उमड़ी हुई
छोटे बच्चों की जमात
जो लपक लेते थे
गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ
चुभकर भी इनकी खूँटिया
नहीं देती थी
आभास चुभने का

लेकिन ये बच्चे
अब जवान हो गए हैं
दिल्ली व मुम्बई के आसमान तले
नहीं बीनने जाते गेहूँ की बालियाँ
अब यहीं के होकर रह गए हैं
या बस गए हैं
इन महानगरों के किनारे
कूड़े कबाड़ों के बागवान में
इनकी बीवियाँ सेंक देतीं हैं रोटियाँ
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही परोस देती हैं
अशुद्ध जल में
घोलकर पसीना
सन्नाटे में ठण्डी बयार के चलते ही
सहम जाते हैं लोग
कि गाँव के किसी जमींदार का
आगमन तो नहीं हो रहा है

जिसने नहीं जाना
किसी की बेटी को बेटी
बहन को बहन और माँ को माँ
हमने तो हाथ जोड़कर कह दिया था
कि -- साहब ! गाँव हमारा नहीं है
खेत हमारा नहीं है
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान हमारा नहीं है

नींद और सपनों से जूझते
सोच रहा था
वह बेदखल किसान
महानगरों से चीलर की तरह
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों पड़े हो हमारे पीछे
शब्दभेदी बाण की तरह
क्या अभी भी नहीं बुझ पाई है प्यास
सुलगती आग की तरह।