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परिवर्तन / शैलेन्द्र चौहान

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कई बार

झुंझलाया हूँ मैं

सड़क के किनारे खड़ा हो

न रुकने पर बस

गिड़गिड़ाया हूँ कई बार

बस कंडक्टर से

चलने को गाँव तक

हर बार

कचोटता मेरा मन

कसमसाता

आहत दर्प से गुज़रता मैं

तेज़ गति वाहनों से

देखता इंतज़ार करते

ग्रामवासियों को

किनारे सड़क के

नहीं कचोटता मन

न आहत होता दर्प

सोचता

नहीं मेरे हाथ में लगाम

न पैरों के नीचे ब्रेक

नहीं

अब कोई अपराध बोध भी नहीं

मेरे मन में