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बदलते परिदृश्य / शैलेन्द्र चौहान

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अब

बहार जाने को है

और टूटने को है भ्रम

याद आने लगी हैं

बीती बातें मधुर

छड़े लोग स्नेहिल

प्रकृति सुन्दर अनंत

बहुत बरसे मेघ

उपहार तुमने दिया

उर्वरता का धरा को

दुख है पावस बीतने का

बीतनी ही थी रुत

आख़िर यह कोई

कांगो (ज़ेर) का भूमध्यसागरीय

भू-भाग तो नहीं

कि बरसते रहें

बारहों मास मेघ

धुआँ उगलती रहेंगी चिमनियाँ

सड़कों पर अनगिनत मोटर गाड़ियाँ

रसायनों का लगातार बहना नालियों में

भाँति-भाँति के कचरे के ढ़ेर हर जगह

विषैली गैसें, जहरीला जल, दूषित भूमि

आएंगे अब शरद,

शिशिर फिर हेमंत

सघन ताप और

चिलचिलाहट से भरी ग्रीष्म

न रुका यदि विनाश यह

बदलती ऋतुओं के

साथ-साथ

बदल जाएंगे परिदृश्य भी !