दिया सो दिया
उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं।
पर अब क्या करूँ
कि पास और कुछ बचा नहीं
सिवा इस दर्द के
जो मुझ से बड़ा है--इतना बड़ा है कि पचा नहीं--
बल्कि मुझ से अँचा नहीं--
इसे कहाँ धरूँ
जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ
क्योंकि वह तो एक सच है
जिसें मैं तो क्या रचता--
- जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं!
- जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं!