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नील निर्जन / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

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अभी-अभी उतरी है रात
अभी-अभी मन के आकाश में खिला है,
चाँदनी-धुली चिन्ता का फूल
उन फूलों को बीन लाने के लिए
नींद के सिरहाने दोनों हाथ बढ़ाकर
जाग उठे हैं सपने,
मन के नील-निर्जन में
अभी-अभी उतरी है रात।

अभी-अभी उतरी है रात
इस रास्ते पर इतनी दूर
जिसके लिए झराकर आया हूँ रुलाई
थकावट जब सारे शरीर, मन
और थरथराते पाँवों में उतर आती है
और अवसन्न हो जाता है यह हृदय
रास्तों पर झरने लगती है
चाँद की स्तब्ध नील प्रशान्ति!

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी