देह और मन की सीमाओं में
नहीं बँधी होती है ग़रीब की बेटी
अपने मन की बारहखड़ी पढ़ना उसे आता ही नहीं
और देह उसकी ख़रीदी जा सकती है
टिकुली, लाली, बीस टकिये या एक दोने जलेबियों के बदले भी
ग़रीब की बेटी नहीं पाई जाती
किसी कविता या कहानी में
जब आप उसे खोज रहें होंगे
क़िताबों के पन्नों में
वह खड़ी होगी धान के खेत में, टखने भर पानी के बीच
गोबर में सनी बना रही होगी उपले
या किसी अधेड़ मनचले की अश्लील फब्तियों पर
सरेआम उसके श्राद्ध का भात खाने की मुक्त उद्घोषणा करती
खिलखिलाती, अपनी बकरियाँ ले गुज़र चुकी होगी वहाँ से
आप चाहें तो बुला सकते हैं उसे चोर या बेहया
कि दिन-दहाड़े, ठीक आपकी नाक के नीचे से
उखाड़ ले जाती है आलू या शकरकन्द आपके खेत के
कब बाँध लिए उसने गेहूँ की बोरी में से चार मुट्ठी अपने आँचल में
देख ही नहीं सकी आपकी राजमहिषी भी
आपकी नज़रों में वह हो सकती है दुष्चरित्र भी
कि उसे ख़ूब आता है मालिक के बेटे की नज़रें पढ़ना भी
बीती रात मिली थी उसकी टूटी चूड़ियाँ गन्ने के खेत में
यह बात दीगर है कि ऊँची – ऊँची दीवारों से टकराकर
दम तोड़ देती है आवाज़ें आपके घर की
और बचा सके ग़रीब की बेटी को
नहीं होती ऐसी कोई चारदीवारी
ग़रीब की बेटी नहीं बन पाती
कभी एक अच्छी माँ
कि उसका बच्चा कभी दम तोड़ता है गिरकर गड्ढे में
कभी सड़क पर पड़ा मिलता है लहूलुहान
ह्रदयहीन इतनी कि भेज सकती है
अपनी नन्ही-सी जान को
किसी भी कारख़ाने या होटल में
चौबीस घण्टे की दिहाड़ी पर
अच्छी पत्नी भी नहीं होती ग़रीब की बेटी
कि नहीं दबी होती मंगलसूत्र के बोझ से
शुक्र बाज़ार में दस रुपए में
मिल जाता है उसका मंगलसूत्र
उसके बक्से में पड़ी अन्य सभी मालाओं की तरह
आप सिखा सकते हैं उसे मायने
बड़े – बड़े शब्दों के
जिनकी आड़ में चलते हैं आपके खेल सारे
लेकिन नहीं सीखेगी वह
कि उसके शब्दकोश में एक ही पन्ना है
जिस पर लिखा है एक ही शब्द
भूख
और जिसका मतलब आप नहीं जानते
ग़रीब की बेटी नहीं जीती
बचपन और जवानी
वह जीती है तो सिर्फ़ बुढ़ापा
जन्म लेती है, बूढ़ी होती है और मर जाती है
इंसान बनने की बात ही कहाँ
वह नहीं बन पाती एक पूरी औरत भी
दरअसल, वह तो आपके खेत में खड़ी एक बिजूका है
जो आज तक यह समझ ही नहीं पायी
कि उसके वहाँ होने का मकसद क्या है