खुली बहसों को दावत देना
रवादार शाहंशाहों को भी परेशानी में डाल देता था
हिजरी 987-88 के दौरान दीवान-ए-ख़ास में
जब इस बात पर मुबाहिसा हुआ
कि ख़ुदावंद की बनाई सबसे उम्दा शय अशरफ़-उल-मख़लूकात
आदमज़ाद की वाहिद पैदाइशी मुक़द्दस ज़ुबान क्या थी
तो काज़ी और उलमा इस पर यकराय थे
कि अल्लाह की ज़ुबान अरबी है
जिसमें उसने कुन् कहकर कायनात को वज़ूद बख़्शा
और किताब-उल-मुबीन को नबी पर तारी किया
उधर ब्राह्मण और दूसरे दरबारी सवर्ण
पूरी भयभीत विनम्रता किन्तु क्षमायाचना-भरी दृढ़ता से कहते रहे
कि वेद जो सृष्टि के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं और ईश्वर-विरचित ही हैं
चूँकि संस्कृत में हैं जिसे नाम ही देवभाषा का दिया गया है
अतएव इस पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है
कि परब्रह्म किस वाणी में बोलता है
मंद स्वर में उन्होने पाणिनी का भी उल्लेख किया
अनपढ़ होने के बावज़ूद
आक़-ए-ज़ीशान जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर
एक ऐसा बादशाह था जिसे चीज़ों के तज़्रिबे करने
और उन्हे सही या बातिल साबित करने में बेदार दिलचस्पी थी
चुना उसने बीस हामिला हिन्दू मुसलमान औरतों को
जो कमोबेश एक ही वक्त में माँ बनने वाली थीं
और ज़च्चगी के फौरन बाद भेज दिया फ़कत उनकी औलादों को
उस महल में जिसे आगरे में दूर नीम-बियाबान में
ख़ास इसी मक़सद से आनन-फ़ानन में बनवाया गया था
जहाँ सिर्फ़ धायें थीं और आयाएँ और चंद दूसरे अहलकार औरत-मर्द
जिन सबको हुक्म था कि उनके मुँह पर पट्टी रहेगी
वे पालेंगे इन बच्चों को लेकिन उनसे और आपस में क़तई बोलेंगे नहीं
वर्ना उनकी ज़ुबान क़लम कर ली जाएगी
और उस महल में जो दूसरे कारिंदे आएँगे वे भी अपना मुँह बन्द रखेंगे
मुआवज़े दिए गए थे इन बच्चों के वास्ते
या इन्हें निज़ाम के काम से तलब कर लिया गया था
यह पता नहीं चलता
यही बताया गया है
कि ज़िल्ले-इलाही जानना चाहते थे कि ये बच्चे
जब बोलने लायक होंगे तो कौन सी ज़ुबान बोलते पाए जाएँगे
अरबी संस्कृत या कोई और
महीने बीत गए तीन-चार बरस भी
कि आलमपनाह को फ़तहपुर से दूर उस महल की याद आई
जिसकी बेज़ुबान ख़ामोशी की वजह से आसपास के काश्तकारों गूजरों ने
उसे नाम दे दिया था गुंग महल
10 अगस्त 1582 को गया बादशाह
अपने बहस करने वाले दरबारियों के साथ उस इमारत तक
जहाँ अब भी गूँगे बने हुए औरत मर्द पाल रहे थे बच्चों को
इन बरसों में मुँह पर पट्टी बाँधे कारकून
लाए थे रसद तनख़्वाहें और बाक़ी साज़-ओ-सामान
चुप्पी तुड़वाई अकबर ने अड़तीस महीनों की और हुक्म दिया औरतों को
जिनके गलों की नसें तक जड़ हो चुकी थीं
और जो अब ख़ुद सिर्फ़ इशारों में बात कर सकती थीं
कि बच्चों को हाज़िर किया जाए
आलीजाह मुल्लाओं पण्डितों आलिमों के सामने
पेश किए गए बीस बच्चे
जो बेहद सहमे हुए थे
ऐसे और इतने इन्सान उन्होंने कभी देखे न थे
लेकिन कहा महाबली ने मुस्कराकर उनसे अरबी में :
बोलो
घबराकर पीछे हटने लगे बच्चे
तब शहंशाह ने पुचकार कर एक से संस्कृत में बोलने को कहा
इशारा पाकर सभी उलेमा और पुजारी
हौसला बढ़ाने लगे बच्चों का अलग-अलग दोनों भाषाओं में
जो गुंगियाने लगे पीछे हटते हुए
कुछ कुत्तों सियारों भेड़ियों की तरह रोने लगे
कुछ नर्राने लगे दूसरे जानवरों परिन्दों की मानिंद
बादशाह ने तब उनसे तुर्की दक़नी उर्दू ब्रज कौरवी सबमें कहा बोलने को
पचास दरबारी और ज़ुबानों में इसरार करते रहे उनसे
अब बच्चों की आँखें निकल आई थीं
उनके काँपते बदन ऐंठ रहे थे वे मुँह से झाग निकालने लगे
कुछ ने दहशत में पेशाब और पाख़ाना कर दिया
फिर वे दीवार के सहारे दुबक गए एक कोने में पिल्लों की तरह
और उनके मुँह से ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं
जो इंसानों ने कभी इंसान की औलाद से सुनी न थीं
थर्रा गया अकबर इसके मायने समझकर
कलेजा उसके मुँह में आ गया
वह यह तो कहता था कि दुनिया में पैग़म्बर अनपढ़ हुए हैं
चुनान्चे हर ख़ान्दान में एक लड़का उसी तरह उम्मी छोड़ा जा सकता है
लेकिन बच्चों को इस तरह गूँगा देखने का माद्दा उसमें न था
उसने चीख़ कर हुक्म दिया बोलना शुरू हो यहाँ बेख़ौफ और मनचाहा
सौंप दो इन बच्चों को इनके वाल्दैन सरपरस्तों को
फ़ौरन ख़ाली करो इस मनहूस महल को
आइंदा यहाँ ऐसा कुछ न हो
यह पता नहीं चलता है
कि उन बच्चों के कोई अपने बचे भी थे या नहीं
उन बीस माजूरों को किस किसने पहचाना और अपनाया
उन्हे कभी कोई ज़ुबानें आई भी या नहीं
वे अपने घर बसा पाए या नहीं
चुन दिए गए गुंग महल के सभी रोशनदान खिड़की दरवाज़े
आसपास के गाँवों में अफ़वाह फैल गई
कि उसके भीतर से अब भी गूँगों की
जानवरों जैसी आवाज़ें आती हैं
धीरे धीरे ढह गया गुंग महल
कुछ बरसों तक रहे खण्हर में सियार लोमड़ियाँ और चमगादड़ें
आगरा के पास की इस शाही तज़िबागाग का तो क्या
उस फ़ैज़ाबाद का भी कोई नामोनिशान नहीं मिलता
जहाँ एक दिन पहले बादशाह सलामत ने मक़ाम फ़र्माया था
अकबरनामा में उस रात ज़िल्ले-इलाही की
तहज्जुद की नमाज़ की यह दुआ भी दर्ज़ नहीं है
कि कभार मैं तेरे नबी को लेकर हँस लेता था
लेकिन मेरे अल्लाह मेरा यह आज़मूदा कुफ़्र भी माफ़ कर
कि ख़ुदाई ज़ुबान जैसी कोई चीज़ नहीं है
वह शायद इसलिए कि जब अकबर ने यह फ़रियाद की
तो उसके बहुत कुछ जान चुके ज़ेहन का एक कोना
एक नए ख़ौफ़ के मारे हमेशा के लिए गूँगा हो चुका था