Last modified on 22 जून 2016, at 22:03

ठंड / अभिनंदन

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:03, 22 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अभिनंदन |अनुवादक= }} {{KKCatAngikaRachna}} <poem> काँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

काँपै गाछ, बिरीछ छै, सब्भे छै भयभीत
देखारोॅ आबेॅ पड़ै, बरफ उड़ैतें शीत ।

पानी कनकन्नोॅ लगै, एकदम बड़ी ठहार
अगहन नै पावै कभी, पूस-माघ के पार ।

शीत रीतु के काल में, अजब दिखै संसार
केकरो लेॅ तेॅ सुख यही, केकरो लेॅ तेॅ भार ।

भले नुकैलोॅ नीड़ में, चिड़ियाँ चुनमुन शोर
खेत मगर ई शीत में, एकदम हरा कचोर ।

चढ़ी कुहासोॅ पालकी, ऐलै रीतु शीत
कम्बल, केथा, ओढ़ना, सब्भे छै भयभीत ।

बच्चा-बूढ़ोॅ चाहै छै, शीत ऋतु में रौद
जरो सुहावै छै कहाँ, पानी केरोॅ हौद ।

कुछ लोगोॅ के वास्तें, उत्सव लागै शीत
कुछ लोगोॅ के वास्तें, मरन काल के गीत ।