Last modified on 24 जून 2016, at 11:46

ज़िद्दी पैर / प्रेमनन्दन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:46, 24 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमनन्दन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

'उतने पैर पसारिए जितनी चादर होय'
की लोकोक्ति को
अपने पक्ष में खड़ा करके
चादर छोटी ही होती रही
पैरों से हमेशा!

बाहर न निकल जाएँ
चादर से
इस कोशिश में
कई-कई बार कटना पड़ा पैरों को
चादर में अँटने के लिए।

खुली चुनौती है :
जितनी छोटी होना चाहे,
हो जाए चादर
पैर भी कम ज़िद्दी नहीं हैं!