सच यही है
कि बातें वहीं से शुरू हुईं
जहाँ से होनी चाहिए
लेकिन ख़त्म हुई वहाँ
जहाँ नहीं होनी चाहिए थी !
बातों के शुरू और ख़त्म होने के बीच
तमाम नदियाँ, पहाड़, जंगल और
रेगिस्तान आए
और अपनी गहराई, ऊँचाई, हरापन और
नंगापन थोपते गए ।
इन सबका सन्तुलन न साध पाने वाली बातें,
ठीक तरह से शुरू होते हुए भी
सही जगह नहीं पहुँच पाती
अफ़वाहें बन जाती हैं !
अच्छा नहीं है,
बातों का अफ़वाहें बनना !