Last modified on 28 जून 2016, at 07:25

पिछड़ते हुए.... / सुल्‍तान अहमद

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:25, 28 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुल्‍तान अहमद |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पिछड़ा हूँ इस क़दर
कि सच को
देख सकता हूँ
सच की तरह

थोड़ा-सा और पिछड़ जाऊँ
तो सच को
सच की तरह कह सकूँ

उससे भी अगर
ज़्यादा पिछड़ जाऊँ
तो सच को
सच की तरह कर सकूँ
यानी सच को
ख़ूबसूरत सच में
बदलते हुए मर सकूँ।