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दीवारें / शहनाज़ इमरानी

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बरसों से बनती आ रही है दीवारें
मिट्टी-गारे की, ईंट-पत्थरों की
लकड़ी, मार्बल, सीमेण्ट की
तरह-तरह की दीवारें
कुछ सीलन से भरी, काई लगी
झुकी हुई गिरती हुई
कुछ मज़बूत और बहुत ऊँची
छोटी और कमज़ोर दीवारें
मज़बूत दीवारों को देखती हैं
पर मज़बूत दीवारें तनी रहती है
वो झुक कर छोटी और कमज़ोर
दीवारों को नहीं देखतीं

दीवारें दिलों में नफ़रत की
दीवारें घरों में सुरक्षा की
कुछ टूटे हुए लोग रोते हैं इनसे लिपट कर
कुछ थके हुए लोगों का सहारा होती है
कुछ दीवारें फलाँग जाते है और कुछ दीवारें तोड़ते है
कुछ तस्वीरें, पोस्टर और नारो से भरी
कहीं कैनवास बनी चित्रकार का
और कहीं इनसान के हाथों दुरुपयोग का

लिखी जाती है इन के ऊपर गालियाँ
अश्लील शब्द और थूक दिया जाता है
ये तब भी चुप रहती हैं
कहते हैं इनके कान होते हैं
यह सब कुछ सुनती है
कोई विरोध नहीं गुस्सा नहीं
जब चाहो बना दो जब चाहे गिरा दो
कुछ दीवारें समय के साथ गिर गईं
कुछ दीवारों के निशान बाक़ी हैं
कुछ अनदेखी दीवारें लगातार बन रही है।