छीs...छी छी! हद्द हो गई, ऐसे चोर-चकार!
क्या बोलूँ क्या-क्या होता है मुझ पर अत्याचार!
टिफ़िन का डब्बा आगे रक्खा, आँख लग गई ज़रा,
आँख खुली तो देखा डब्बा लगभग ख़ाली धरा।
रोज़-रोज़ का यही तमाशा, जाने कौन उचक्का,
कल तो हुई डकैती की हद, समझ लीजिए पक्का।
पाँच ठो कटलेट, बारह पूड़ी, दो ठो टोपी खाजा,
मालपुआ दो अदद, तले आलू कुछ चना दुप्याजा।
और भी था कुछ, परात में रख, तोप-ढाँककर सोया,
जब तक सोकर उठूँ, सभी क़ाफूर हो गया गोया।
इस पर गुस्सा चढ़ा आज है, और नहीं सह सकता,
अब तो बस मारूँगा ही, अब माफ़ नहीं कर सकता।
सारा काम छोड़, चुपके से दिन भर दूँगा पहरा,
देखूँ कौन चुराए मेरा भोजन दिन-दोपहरा।
रामू हो या श्यामू हो या फत्ते, अली, मुराद,
जो कोई हो, आज आएगी उसको नानी याद।
काम न आएगी चालाकी, नहीं चलेगा दाँव
हाथ में जिसकी गरदन आई, मारूँ उसे कुठाँव।
देखो, छुपकर खड़ा ढाल के पीछे, ले तलवार,
गरदन ज़रा निकलते ही मैं झपट करूँगा वार।
बाज़ नहीं आता हरकत से, सावधान करने से,
अब आ, पता चलेगा कैसा लगता है मरने से।
सुकुमार राय की कविता : चोर धरा (চোর ধরা) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित