धुआँ-देती हर लहर है
जली नदियों का शहर है
चीख में डूबे हुए गुंबज
हवाएँ चुप खड़ी हैं
जल रहीं हैं सीढ़ियाँ
उतरें कहाँ से
हडबडी है
और जंगल हो गये हैं दिन
अँधेरी दोपहर है
कौन पहुँचे
आग की मीनार पर
खोये घरौंदे
फूल-पत्तों की जलन को
कौन पूछे
लाशघर के हैं मसौदे
जहाँ रहते थे सलोने दिन
वहीँ पर खण्डहर हैं
राख की पगडंडियों पर
जले पाँवों के सफ़र हैं
प्रेत-सूरज के झरोखे
रोज़ घिरते नये डर हैं
मुँह-ढँके सब लोग रहते
शौक से पीते ज़हर हैं