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मेरी ज़िन्दगी / बलबीर माधोपुरी

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जब से वह मेरे संग है

एक और एक ग्यारह हैं

धरती पर लगते नहीं पैर

और बहुत पीछे छोड़ आया

घोर उदासियों के जंगल

नफ़रतों के खंड-मंडल

फेंक दिये हैं उसकी मुहब्बत के सामने

शिकवे-गिलों के हथियार

वैरभाव के विचार।


बो दिये हैं उसने

मेरे मन में

रोष-विद्रोह से भरे चेतन बीज

जैसे पल रहा है

उसके तन-मन के अन्दर

हमारे भविष्य का वारिस।


ढक दिया है उसने

मेरे अवगुणों-ऐबों का तेंदुआ-जाल

जैसे चमड़ी ने

ढंक रखे हैं तन के नाड़ी और तंतु-जाल

पर खूब नंगा करती है वह

उन पैरों के सफ़र को

जिन्होंने फलांगे थे गड्ढ़े-टीले


दायें-बायें, पीछे-आगे

और तैर कर पार किए थे चौड़े पाट के दरिया

निडर होकर कही थी बात

बीच लोगों के।


रक्त में रचे ख़यालों की तरह

बहुत राजदार है वह

कभी-कभी क्या

अक्सर ही

मुझे ‘कृष्ण’

और खुद को ‘राधा’ कहती है

मुझे ‘शिव’

अपने को ‘पार्वती’ बताती है

आर्य-अनार्य के बीच

पुल बनती लगती है

और वजह से

उसने बहुत कुछ समो लिया है

अपने अन्दर

जैसे धरती के विषैले रसायन

जब देखने जाते हैं

किराये का मकान

धार्मिक स्थानों पर होता अपमान

सवालिया नज़रों से वह

तलाशती है मनुष्य का ईमान

और फिर धूप की तरह

और ज्यादा चमकती है

हमारे अंशों का मेल

हमारे वंशों का सुमेल

अम्बर को धरती पर लायेगा

जनता के लिए पलकें बिछायेगा।


मैं फटी आँखों से

उसकी ओर निहारता हूँ

और अतीत में से

वर्तमान और भविष्य को देखता