Last modified on 4 अगस्त 2016, at 14:33

प्रेम और मृत्यु / प्रकाश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:33, 4 अगस्त 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रेम में क्या होता है और प्रेम-कविता में क्या होता है? इसी तरह यह कि मृत्यु में क्या होता है और मृत्यु-कविता में क्या होता है?

प्रेम का संबंध जीवन के उद्भव से, उसके बीज-तत्व से है। दैहिक तल पर ही सही, दो आत्माओं का प्रेम-मिलन जीवन के उद्भव का कारण बनता है। प्रेम की बुनियाद में ही गहरी आसक्ति और एक-दूसरे के प्रति गहन अनुराग सक्रिय है। फलस्वरूप इसकी परिणति में जो जीवन उपलब्ध होता है उसकी सूक्ष्मतम कोशिकाओं में भी जीवन के प्रति अदम्य कामना के रूप में प्रेम विन्यस्त पाया जाता है। ललक, उत्साह, उल्लास, ऊर्जा और उछाह इस प्रेम के रूपक हैं। ये प्रेम के भी रूपक हैं और प्रेम-कविता के भी।

प्रेम में जीवन के नये-नये अनुभव निर्मित होने शुरू होते हैं। उन अनुभवों को प्रेम अपने तईं संजो कर रखना चाहता है। ये अनुभव अभी नये होने के कारण निर्दोष भी हैं। उनमें वह छाया अभी पड़नी नहीं शुरू हुई या उनमें अभी वैसे तत्व शामिल होने नहीं शुरू हुए, जिनके कारण प्रेम में कलुष आता है और जिस कारण उसके घटित होते रहने की संभावना क्षीण पड़ सकती है।

प्रेम अपने आदि-स्वरूप की निरंतरता में लगातार घटित होने वाली प्रक्रिया है। प्रेम में वर्तमान जीवन के अनुभव ही नहीं, उस प्रेम की स्मृतियां भी सक्रिय रहती हैं जो प्रेम की आदि-कामना के रूप में उसे उत्तराधिकार में मिली है और उसमें निहित है। आदि-कामना की प्राक्-स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए प्रेम को अनंत जीवन जीना पड़ता है। प्रेम-कविता में यह उत्तर-जीवन संभव होता है।

प्रेम विशिष्ट अर्थ में ‘काम’ है। मनुष्य के शरीर को निर्मित करने वाली करोड़ों-अरबों कोशिकाएं वस्तुतः काम-कोशिकाएं हैं। इनमें भी एक-एक कोशिका में करोड़ों-अरबों काम-केंद्र हैं। काम का प्रमुख लक्षण है- खींचना, दूसरे को अपनी ओर आसक्त करना। इस कारण ही प्रेम में इतना आकर्षण है। यह आकर्षण एक तरफ विपरीतधर्मी देह को अपनी ओर खींचता है वहीं दूसरी तरफ अपनी उदात्तावस्था में संसार के प्रत्येक पदार्थ के प्रति आसक्त होकर सार्वजनीन बनता है।

‘काम’ के अर्थ में प्रेम में दो देहें परस्पर आसक्त होकर एक तीसरी देह की रचना करती है। वे उत्तराधिकार के रूप में तीसरी देह को अपनी स्मृतियां सौंपती हैं। ये स्मृतियां देह की हैं, काम की हैं, आसक्ति और अनुराग की हैं। नई देह इन्हें आखिर तक अपने में संजोए रखती है- अपने नये प्रेमानुभवों से परिवर्द्धित और समृद्ध करती हुई।

प्रेम के रूप में मनुष्य की काम-कोशिकाएं उसकी आसक्ति को दीप्त करती हुई आदि-प्रेम की उसकी स्मृति को भी उद्दीप्त करती हैं और वर्तमान जीवन में भी प्रेम के तमाम प्रसंगों को न भूलने लायक बनाती हैं। प्रेम-प्रसंगों में हिस्सेदार होने और उनके विगत होने पर उनकी स्मृतियों का तांता आजीवन लगा रहता है। जीवन के तमाम घात-प्रतिघात, द्वन्द्व और संघर्ष में भी प्रेम की स्मृति क्षीण नहीं होती। मनुष्य कई दफा अपनी कविताओं में प्रेम की स्मृतियों को जीवित रखने की कोशिश करता है। और प्रायः प्रेम के ही एक रूपक आसक्ति के जरिए अपनी संततियों में उत्तर जीवन के लिए प्रेम की स्मृतियों को अंतरित कर देता है। इस विधि से वह अपने प्रेम को लगभग अमर और अपराजेय बना देता है।

यही विधि प्रेम-कविता में काम करती है। यद्यपि प्रेम-कविता में इसका रूप थोड़ा उदात्त होता है। उसमें भी आसक्ति होती है लेकिन वह आसक्ति देह के तल पर प्रेम के एक रूपक ‘काम’ के रूप में नहीं होती। प्रेम-कविता में प्रेम का ‘काम-तत्व’ प्रायः प्रच्छन्न होता है जबकि रोजमर्रा के जीवन में देह के तल पर प्रेम का रूपक ‘काम’ प्रच्छन्न नहीं भी हो सकता है।

 जीवन की सभी सुखद स्मृतियां प्रेम की हैं। जो चीजें अथवा जिन चीजों की स्मृतियां सुख देती हैं, वे प्रिय होती हैं। और सभी प्रिय वस्तुओं का संबंध प्रेम से है। बिना लगाव और रूझान के हम कोई काम नहीं करना चाहते। बिना झुुकाव और रूचि के हम किसी से मिलना और प्रायः बात तक करना नहीं पसंद करते। हम कोई संबंध तक कायम करना नहीं चाहते। जीवन का हर काम हम अपनी इच्छा और मर्जी से करना चाहते हैं जब तक कि उसके लिए कोई बाहरी बाध्यता न हो। तो हमारी सारी सक्रियता प्रेम की भावना से निर्धारित और संचालित होती है। प्रेम की भावना से जुड़ी गतिविधियां सबल रूप से मनुष्य की स्मृति में सुरक्षित रहती हैं। मनुष्य इन स्मृतियों को अंत-अंत तक हर हाल में बचाए रखना चाहता है। चूंकि ये सब प्रेम के भाव से जुड़ी, प्रेम की स्मृतियां हैं और देह में हमेशा के लिए इनका रहवास मुमकिन नहीं, अतः वह इन्हें एक तल पर शाब्दिक माध्यम से प्रेम-कविता में और एक अन्य तल पर दैहिक माध्यम से अपनी संततियों की जैव-कोशिकाओं में स्थानांतरित कर देता है। इन दोनों में प्रेम-कविता का तरीका सबसे बेहतर और टिकाऊ मालूम पड़ता है क्योंकि उसमें व्यक्ति की अपनी स्मृतियां सीधे-सीधे मौलिक रूप में अंकित हो जाती हैं। इस तरीके से वे ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय बन जाती हैं।

बावजूद इसके देह प्रेम का सबसे बड़ा भौतिक आलंबन है। इसके बिना प्रेम की कल्पना नहीं की जा सकती। देह प्रेम की स्मृतियों का भी सबसे जीवंत आलंबन है। शायद इसलिए प्रेम देह के नष्ट होने की कल्पना से भय खाता है और हर हालत में देह को बचाए रखना चाहता है।

यहां मैं ‘प्रेम की स्मृति’ के संबंध में एक बात स्पष्ट कर दूं। क्या मैं प्रेम को मात्र ‘स्मृति’ की वस्तु मान कर चल रहा हूं जिसको देह और उसकी कामना धारण करती है? क्या प्रेम मनुष्य की विगत स्मृति का ही एक हिस्सा मात्र है जिसका मनुष्य की वर्तमान सत्ता से कोई सीधा संबंध नहीं? क्या प्रेम एक सदैव जारी अनुभव नहीं है जैसा कि उसे व्यापक रूप से मान लिया गया है? हां, मेरा भी यही विचार है कि प्रेम पहले अनुभव है जो आगे चलकर स्मृति में बदल जाता है। बल्कि मैं इसे थोड़ा-सा सुधारकर कहूं कि प्रेम निरंतर स्मृति में बदलता अनुभव है, बल्कि जब तक उसका अनुभव परिपक्व होता है वह स्मृति में तब्दील हो चुका होता है।

प्रेम का अनुभव नहीं होता, उसकी स्मृति होती है। प्रेम का जब अनुभव हो रहा होता है तब वह अनुभव वस्तुतः प्रेम की पूर्वस्मृति से निःसृत होता है। यह पूर्वस्मृति प्रेम के आदि-रूप की है जो उसे देह के उत्तराधिकार के रूप में मिली हुई है। उत्तराधिकार में उसे आसक्ति और अनुराग का भी वह प्रबल तत्व मिला हुआ है जिसमें घुला प्रेम का प्राक्-अनुभव और स्मृति एक साथ संघनित है। प्रेम में इसी प्राक्-अनुभव की याद आती है जो वर्तमान जीवन में होने वाले प्रेम-अनुभवों को सत्यापित करता है। अतः जिन्हें हम प्रेम का नया अनुभव कहते हैं वे पुराने अनुभवों की याद होते हैं। इसलिए प्रेम में स्मृतियों का इतना महत्व है।

प्रेम का अनुभव हो रहा है अथवा प्रेम का अनुभव हुआ है- का इतना ही मतलब है कि प्रेम की स्मृतियां सक्रिय हुई हैं। एक कवि उसे कविता में उतारता है प्रेम के ‘नये अनुभव की कविता’ कह कर।

 चर्चा में पीछे छूट गया एक सूत्र यह था कि प्रेम का सबसे बड़ा भौतिक आलंबन देह होने के कारण प्रेम देह के नष्ट होने की कल्पना मात्र से भय खाता है और हर हालत में उसे बचाए रखना चाहता है।

ठीक यही स्थिति देह के संबंध में भी है। वह भी प्रेम को बचाए रखने के लिए अपनी सुरक्षा को अनिवार्य समझता है। वह भी अपने बगैर प्रेम की गति को संभव नहीं मानता। प्रेम की स्मृति को देह ही संजोए रख सकती है। प्रेम-कविता में भी प्रेम की स्मृति सहेजी जाती है, जिसे संभव कोई देह करती है। इसलिए जैविक तल पर देह की मृत्यु प्रेम और उसकी स्मृति दोनों के लिए निर्णायक अंत है। एक अन्य तल पर, जा चुकी देह और उसके प्रेम व स्मृति का अभिलेख प्रेम-कविता में काफी हद तक शेष और सुरक्षित रहता है। मृत्यु उसे मार नहीं पाती। प्रेम-कविता की जिजीविषा और उसका उत्कट उत्साह उसे महान प्रेम-कविता के रूप में अनंत-काल तक जीवित रख सकता है।

लेकिन जैविक तल पर मृत्यु देह को तो मार ही डालती है, उसके प्रेम और स्मृति को भी नष्ट कर देती है। मृत्यु में पहला आघात व्यक्ति के ‘स्मरण-केंद्र’ पर होता है। वह इसी केंद्र को सबसे पहले ध्वस्त करती है। मृत्यु महाविस्मरण की महान घटना है। यह घटना स्मृति पर गहरी और निर्णायक चोट करती हुई घटित होती है। यह चोट देह को भूलने पर मजबूर करती है। देह की आसक्ति, उसकी कामना में विन्यस्त काम और प्रेम को, और उसकी सुदूर लंबी यादों को भूलने पर विवश करती है। वह जीवन से देह की अनुरक्ति के लंबे संग-साथ के सूत्र को तोड़कर उसे एक ऐसे ‘वैक्यूम’ में धकेल देती है जहां अस्तित्व की अनंत शून्यता है, जहां अस्तित्व की पदार्थमयता निःशेष है।

विस्मरण के गहन अंधकार के कारण ही मृत्यु से इतना भय है। इसकी कल्पना और विचार से भी मनुष्य को परहेज है। मनुष्य की सारी प्रेम-कविताएं इसी भय और आतंक से मुक्ति की कविताएं हैं। मनुष्य नहीं चाहता कि देह से आसक्ति और उस आसक्ति की स्मृति का कभी क्षरण हो। वह प्रेम-कविता में उस आसक्ति और उसकी स्मृति को सुरक्षित रख लेना चाहता है। तभी तो वह सदियों से प्रेम-कविता लिख रहा है। उसे अगर देह से मुक्ति भी चाहिए तो प्रेम-कविता में ही चाहिए। क्योंकि उसी के परिसर में प्राप्त हुई मुक्ति उसे अमर करेगी, पुनः-पुनः देह के दायरे में जीवित करती हुई।

□ □ □ □

सजग प्रेम का एक कवि जब मृत्यु-कविता की ओर उन्मुख होता है, तब वस्तुतः वह प्रेम और कामना के महाविस्मरण में गिर चुका होता है। तब जीवन और प्रेम की समस्त स्मृतियां एकबारगी अवरूद्ध हो जाती है। उसकी सूराख से कुछ भी बाहर नहीं जाता।

चूंकि मृत्यु और उसकी अनुभूति के क्षण का प्रचंड आघात अप्रत्याशित और असह्य होता है अतः ठीक उसी विशिष्ट क्षण के अहसास की कविता यानी- ‘मृत्यु-कविता’, जीवन की तमाम ऐहिक आसक्तियों और प्रेम की स्मृति के विपरीत, विराग और आघात की कविता होती है। उसे अचानक आसक्ति और प्रेम की स्मृति के नष्ट हो जाने का आभास होता है जो उसके उत्साह, उल्लास और उत्तरजीवन की कामना को शिथिल कर देती हैै। अंततः मृत्यु में यह सब नष्ट हो ही जाता है। और जो जीवन नष्ट हुआ, उसके महाविस्मरण की स्थायी स्थिति बन जाती है। आघात के उस क्षण की पूर्व कल्पना या पूर्व अनुभव को कविता में ढालते वक्त उस कविता का भी एक विशिष्ट स्वभाव तय हो जाता है। वह ‘कविता’ से ‘मृत्यु-कविता’ हो जाती है। वह कविता वास्तव में जीवन-ऊर्जा की बात नहीं करती। वह ऊर्जा जो प्रेम है, काम है, आसक्ति है और न जाने कितने रूपों में रति का रूपक है।

 कभी-कभी प्रेम-कविताओं की तरह मृत्यु-कविताओं में भी आसक्ति के लक्षण देखे जा सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मृत्यु के चरम क्षण में अचानक जीवन और उस जीवन में किया गया प्रेम याद आता है। एकाएक उस प्रेम की स्मृति मृत्यु के भीषण क्षण में भी कौंध उठती है। अब जैसे कवि अशोक वाजपेयी को ही लें तो उनका मानना है कि उनकी प्रेम-कविताएं उनकी मृत्यु- कविताओं का ही दूसरा पक्ष है। अर्थात् उनकी प्रेम-कविताओं में जो आसक्ति का भाव दीख पड़ता है, उनकी मृत्यु-कविताओं में भी वही आसक्ति का भाव है और उतना ही। दोनों तरह की कविताओं में जीवन के प्रति अनुराग है और दोनों में ही जीवन का अवसाद लक्षित होता है।

यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है कि प्रेम में असुरक्षा की जो भावना है वही वह अवसाद है जो मृत्यु के क्षण में उत्पन्न होता है। और मृत्यु के क्षण में पुनर्नवा होने की जो उज्ज्वल आकांक्षा है वही प्रेम में अनुराग बनकर प्रकट होता है। इसलिए जो कवि प्रेम और मृत्यु-कविताओं में समानधर्मिता की खोज करते हैं वे अपनी जगह ठीक ही हैं। ऐसे कवियों को यदि प्रेम और मृत्यु दोनों में अवसाद और उल्लास के समान लक्षण दिखाई पड़ जाते हैं तो यह अन्यथा नहीं है। वास्तव में प्रेम-कविता में वही होता है जो मृत्यु-कविता में होता है। प्रेम-कविता जिस आसक्ति से शुरू होती है, मृत्यु-कविताएं उसी आसक्ति को विस्तारित करती हैं। प्रेम-कविता में प्रेम का अनुभव और उसकी स्मृति जगह बनाती है तो मृत्यु-कविता में मृत्यु का भय और अवसाद जगह घेरता है जो प्रकारांतर से जीवन से आसक्ति का ही रूप है। तभी तो वह मृत्यु से भय खाता है। एक व्यक्ति के लिए जैसे मृत्यु प्रेम और आसक्ति का पटाक्षेप है उसी प्रकार एक कवि की मृत्यु-कविताओं में प्रेम और आसक्ति का पटाक्षेप होता है। लेकिन अंत से पहले दोनों में प्रेम और आसक्ति की लौ सर्वाधिक तेज होती है। वह लौ मृत्यु से खुद को अंत-अंत तक बचा लेने की जद्दोजहद करती है। यही प्रेम और मृत्यु-कविताओं की समानधर्मिता है।