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स्त्रियाँ / आभा बोधिसत्त्व

स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं

पदवियाँ पीढी दर पीढी स्त्रियाँ बना रही हैं

उस्ताद फिर गुरु, अपने ही दो-चार बुझे-अनबुझे

शव्दों से ,


दे रही हैं ढाढ़स, बन रही हैं ढाल,

सदियों से सह रही हैं मान-अपमान घर और बाहर.

स्त्रियाँ बढा रही हैं मर्यादा कुल की ख़ुद अपनी ही

मर्यादा खोकर,


भागम-भाग में बराबरी कर जाने के लिये

दौड रही हैं पीछे-पीछे,

कहीं खो रही हैं

कहीं अपनापन,

कहीं सर्वस्व.