तुम को देखा, आज डीठ डहडही हो गई,
मन का सारा शून्य आप ही आप भर गया,
लहरों का उन्माद तीर को पार कर गया,
पुर पुर गई दरार । शुष्कता कहाँ खो गई,
हरियाली चुपचाप हर्ष के बीज बो गई,
उगे फूल ही फूल, तप्त संसार तर गया,
यह उल्लसित प्रवाह-- अगोचर काल डर गया,
परिवर्तन का चक्र थमा । सत्ता समो गई
सत्ता में ही । एक राग जीवन में सहसा
उग आया स्वयमेव और आमंत्रित श्रुतियाँ
नए प्राणमय गान गगन में लहरें रच कर
सिखा चलीं, अनुराग हृदय का बाहर बह सा
चला । अवश्य अपार दुख की सारी युतियाँ
उठ कर हुईं विलीन, चल पड़ा जीवन बच कर।