Last modified on 28 अप्रैल 2008, at 10:28

भय / मोहन राणा

लताओं से लिपटे पुराने पेड़

गहरी छायाओं में सोया है जंगल

मेरी बढ़ती हुई धड़कन में

सहमा है रक्त

उत्तेजना में देखता हूँ

छुपे हुए चेहरों को

उतरते हुए मुखौटों को

छनती हुई रोशनी के आर पार

जो पहुँच जाती है मेरी जड़ों में भी,

क्यों चला आया मैं यहाँ

अकेले ही

जो नहीं था उसे

ले आया यहाँ



18.8.2002





जिसका नहीं कोई चेहरा


यह हवा का जहाज यात्रा यह उड़ान यह खिड़की बादलों में, मैं हूँ अगर मूँद लो अपनी आँखें तुम एक पल वह आवाज तुम्हारे मन में जिसका नहीं कोई चेहरा,



29.12.2004






क्या तुमने भी सुना


चलती रही सारी रात तुम्हारी बेचैनी लिज़बन की गीली सड़कों पर रिमझिम के साथ मूक कराह कि जिसे सुन जाग उठा बहुत सबेरे, कोई चिड़िया बोलती झुटपुटे में जैसे वह भी जाग पड़ी कुछ सुनकर सोई नहीं सारी रात कुछ देखकर बंद आँखों से ! चलती रही तुम्हारी बेचैनी मेरे भीतर टूटती आवाज़ समुंदर के सीत्कार में उमड़ती लहरों के बीच, चादर के तहों में करवट बदलते क्या तुमने भी सुना उस चिड़िया को



6.4.2002 सज़िम्ब्रा, पुर्तगाल





जिया कहने भर के लिए


कभी ना समाप्त होने वाला दिन डूबते और उगते सूरज बीच मैं दौड़ता किसी किनारे को छूने घूम कर पहुँचता वहीं

दीवार पर चढ़ती बेल दीवार पर फैलती बेल दीवार पर बेल आकाश पर चढ़ता दिन आकाश पर फैलता दिन आकाश पर दिन कागज पर लिखा शब्द कागज पर जड़ा शब्द कागज पर शब्द

कोई अनुभव अधूरा उसे नाम दे कर कहता हुआ पूरा यह जिया कहने भर के लिए



17.3.1996







आता हुआ अतीत

आता हुआ अतीत, भविष्य जिसे जीते हुए भी अभी जानना बाकी है

दरवाजे के परे जिंदगी है, और अटकल लगी है मन में कि बाहर या भीतर इस तरफ या उधर यह बंद है या खुला! किसे है प्रतीक्षा वहाँ मेरी किसकी है प्रतीक्षा मुझे अभी जानना बाकी है

एक कदम आगे एक कदम छूटता है पीछे सच ना चाबी है ना ही ताला



30.5.2005





होगा एक और शब्द


नीली रंगते बदलती आकाश और लहरों की बादल गुनगुनाता कुछ सपना सा खुली आँखों का कैसा होगा यह दिन कैसा होगा यह वस्त्र क्षणों का ऊन के धागों का गोला समय को बुनता उनींदे पत्थरों को थपकाता

होगा एक और शब्द कहने को यह किसी और दिन




28.5.2001










किसी आशा में


गूंगे शब्दों से भरा मुँह शैवालों से भरी किताबें आज का दिन भी नहीं कहता कुछ नया, खोल देता हूँ खिड़की दरवाजे किसी आशा में




5.9.2001





स्कूल


पहले मुझे किताब की जिल्द मिली फिर एक कॉपी बस्ते में और कुछ नहीं बचा इतने बरस बाद घंटी सुनते ही जाग पड़ा मैदान में कोई नहीं था दसवीं बी में भी कोई नहीं क्या आज स्कूल की छुट्टी है सोचा मैंने हवाई जहाज मध्य यूरोप में कहीं था और मैं कई बरस पहले अपने स्कूल

धरती ने ली सांस हँसा समुंदर आकाश खोज में है अनंतता की

बहुत पहले मैंने उकेरा अपना नाम मेज पर समय की त्वचा के नीचे धूमिल कोई तारीख

कोई दोपहर उड़ा लाती हवा के साथ किसी बात की जड़ मैं वह दीवार हूँ जिसकी दरार में उगा है वह पीपल



5.9.2006





कुछ पाने की चिंता

अपने ही विचारों में उलझता यहाँ वहाँ क्या तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ कभी, जो अब याद नहीं

बात किसी अच्छे मूड से हुई थी कि लगा कोई पंक्ति पूरी होगी पर्ची के पीछे उस पल सांस ताजी लगी और दुनिया नयी, यह सोचा और साथ हो गई कुछ पाने की चिंता

मैं धकेलता रहा वह और पास आती गई, अच्छा विचार नहीं बचा सकता मुझे अपने आप से भी, उसे खोना चाहता हूँ नहीं जीना चाहता किसी और का अधूरा सपना



30.8.2006







अस्मिता

क्या मैं हूँ वह नहीं जो याद नहीं अब, जो है वह किसी और की स्मृति नहीं क्या जिनसे जानता पहचानता अपने आपको मनुष्य ही नहीं पेड़- पंछी हवा आकाश मौन धरती घर खिड़की एक कविता का निश्वास!

पर ये नहीं किसी और की स्मृति क्या? जो याद है बस भूलकर कुछ


13.8.2006













कौन


बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को उठा कर सीधा करता गिरी हुई को कतरता पोंछताझाड़ता बुहारता, जीते हुए बदलते जीवन को देखता छूटता गिरता टूटता गर्द होता, और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को कहते सामान्य सब कुछ नया साफ सुथरा जैसे मैं देखता उसे इस पल और बदलता तभी छूटता मेरे हाथों से जैसे वह कभी ना था वहाँ, कौन! रुक कर पूछता मैं अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें



11.9.2005






गिरगिट

हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बार देखते एक दूसरे को जानते हुए भी कि पहचान पुरानी है, करते इशारा एक दिशा को वह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है! वह गर्मियों का भी नहीं लगता, आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएँ पर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटा अनुपस्थित है चिड़ियाँ कातर आवाजें वहाँ... कैसे मैं जाऊँ वहाँ कविताएँ सुनने,

हम रुकते हैं पलक झपकाते झेंपते जैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलते कोई जगह बदलते कोई रंग कोई चेहरा



27.4.2006







अपवाद

तुम अपवाद हो इसलिए अपने आप से करता मेरा विवाद हो, सोचता मैं कोई शब्द जो फुसलादे मेरे साथ चलती छाया को कुछ देर कि मैं छिप जाऊँ किसी मोड़ पे, देखूँ होकर अदृश्य अपने ही जीवन के विवाद को रिक्त स्थानों के संवाद में.



26.11.2005





वसंत

सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ यही सोचते मैं बदलता करवट, परती रोशनी में सुबह की लापता है वसंत इस बरस, हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार, पर उसमें ना कोई अता है ना पता ना ही कोई पहचान मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा यदि वह मिला कहीं क्या मैं पूछूँगा उसकी अनुपस्थिति का कारण कि इतनी छोटी सी मुलाकात क्या पर्याप्त फिर से पहचानने के लिए तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी कि याद आए कुछ जो भूल ही गया, अनुपस्थित स्पर्श


21.3.2006



तुम्हारा कभी कोई नाम ना था


वे व्यस्त हैं वे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैं मुझे शिकायत नहीं वे व्यस्त मेरे हर सवाल पर उनका हाल कि वे व्यस्त हैं, रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलता पर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्र मैं व्यस्त हूँ मैं व्यस्त हूँ सदा समय के साथ सदा समय के साथ

पर कान वाले लोग बहरे हैं, और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को.

और समय वही दोपहर के 11:22 कहीं शाम हो चुकी होगी कहीं अभी होती होगी सुबह नयी कहीं आने वाली होगी रात पुरानी

क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभी पूछता उससे जैसे कुछ याद आ जाए उसे, लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती, कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी को जो अब याद नहीं कि भूलना कठिन है तुम्हें


16.11.2005






अजनबी बनता पहचान


देखें तो कौन रहता है इस घर में किसी आश्चर्य की आशा धीरज से हाथ बाँधे खड़ा मैं देता दस्तक दरवाज़ेपर सोचता- कितना पुराना है यह दरवाज़ा सुनता झाडि़यों में उलझती हवा को ट्रैफिक के अनुनाद को सुनता अपनी सांस को बढ़ती एक धड़कन को पायदान पर जूते पौंछता दरवाज़ेपे लगाता कान कि लगा कोई निकट आया भीतर दरवाज़ेके बंद करता आँखें देखता किसी हाथ को रुकते एक पल सिटकनी को छूते निश्वास जैसे अनंत सिमटता वहीं पर,

भीतर भी बाहर भी मैं ही जैसे घर का दरवाज़ा अजनबी बनता पहचान बनाता



28.2.2006




सच का हाथ

ये आवाजें ये खिंचे हुए उग्र चेहरे चिल्लाते

मनुष्यता खो चुकी अपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार में बस टटोलती एक क्रूर धरातल को, कि एक हाथ बढ़ा कहीं से जैसे मेरी ओर आतंक से भीगे पहर में कविता का स्पर्श, मैं जागा दुस्वप्न से आँखें मलता पर मिटता नहीं कुछ जो देखा


7.2.2006






सर्दियाँ

जमे हुए पाले में गलते पतझर को फिर चस्पा दूँगा पेड़ों पर हवा की सर्द सीत्कार कम हो जाएगी, जैसे अपने को आश्वस्त करता पास ही है वसंत इस प्रतीक्षा में पिछले कई दिनों से कुछ जमा होता रहा ले चुका कोई आकार कोई कारण कोई प्रश्न मेरे कंधे पर मेरे हाथों में जेब में कहीं मेरे भीतर कुछ जिसे छू सकता हूँ यह वज़नअब हर उसांसमें धकेलता मुझे नीचे किसी समतल धरातल की ओर,



4.2.2006







ढलती एक शाम


कितने आयाम कि चैन नहीं जिसमें ली यह सांस करने यह सवाल कि नहीं करूँगा फिर वही सवाल, मैं चिड़िया हूँ या पतंग या दोनों ही हूँ एक साथ उस आयाम में ढलती एक शाम



29.1.2006







कविता


कविता जीवन का क्लोरोफिल और जीवन सृष्टि का पत्ता उलटता पृष्ठ यह सोचकर कौन सोया है इस वृक्ष की छाया में किसका यह सपना जो देखता मैं उसे अपना समझ कर.



22.1.2006










पावती


लौटती हुई रचनाएँ किसे होता है खेद संपादक को कवि को ? शहडोल के शर्मा जी को परीक्षाओं के कुंजीकारों को नई सड़क की भीड़ को किसी अधूरे बड़बड़ाए वाक्य को किसे होता है खेद इस चुप्पी में

मुझे कोई खेद नहीं उन्हें भी कोई खेद नहीं फिर यह पावती किसके लिए



9.2.2006







झपकी


नंगे पेड़ों पर उधड़ी हुई दीवारों पर बेघर मकानों पर खोए हुए रास्तों पर भूखे मैदानों पर बिसरी हुई स्मृतियों पर बेचैन खिड़कियों पर छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर, हल्का सा स्पर्श ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से, उठता है मंद होते संसार का स्वर आँख खुलते ही



3.2.2005







भंवर

अंगूर की बेलों में लिपट सो जाती धूप बीच दोपहर गहरी छायाओं में सोए हैं राक्षस सोए हैं योद्धा सोए हैं नायक सोया है पुरासमय खुर्राता अपने आपको दुहराते अभिशप्त वर्तमान में



4.12.2005









चश्मा


कभी कभी लगाता हूँ पर खुदको नहीं औरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा, कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में उनकी चुप्पी में, कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भी आइने में अपने को देखते, मुस्कराहट के छोर पर.



2.12.2005











सड़क पर


चीखती हुई कुछ बोलती चिड़ियाँ लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता यह एक चलता हुआ घर भागती हुई सड़क पर यह एक बोलती खामोश दोपहर




14.7.2006









यदि


वे मर जाएँगे तो विलुप्त हो जाएँगी लहरें पत्थर हो जाएगी नदी जीवाश्म हो जाएँगी मछलियाँ पानी में नाव खो देगी अपना किनारा, यदि लहरों के राजहँस मर जाएँ. हम रुके रह जाएँगे अतीत में किसी वर्तमान को खोजते


8.4.2006








कोई आकर पूछे


रुके और पहचान ले अरे तुम जैसे बस पलक झपकी कि रुक गया समय भी कुछ अधूरा दिख गया और याद करते कुछ अधूरा छूट गया फिर से चलते चलते



1.8.2005









किताब


रुकते अटकते कभी थक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों में निराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में


पूरी हो गई एक किताब किसी अंत से शुरू होती किसी आरंभ पर रुक जाती पूरी हो गई एक किताब


आकाश गंगा में एक बूंद पृथ्वी भटकते अंधकार में




17.9.2004




सवाल

क्या यह पता सही है?

मैं कुछ सवाल करता

सच और भय की अटकलें लगाते एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता विस्मृति के झोले में

और वह बेमन देता जवाब अपने काज में लगा जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो

जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा मैं सच को वह समझने वाली बाती नहीं कि समझा सके कोई सच, आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े किधर जाता है यह रास्ता,

समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर यही जान पाता कि सबकुछ बस यह पल हमेशा अनुपस्थित


12.7.






भूल-भुलैया


अधजागा ही सोया गया मैं फिर भी बंद न हुआ सोचना झरती रही कतरनें मन में तुम्हें याद करते कभी हँस देता कभी सोचता कोई और संभावना


उस रास्ते पर अब चौड़ी सड़क है चहल पहल पर वह जगह नहीं जो वहाँ थी बस स्मृति है ! हर गली से हम पहुँचते फिर उसी सड़क के कोने पर अधजागा मैं बढ़ाता हाथ छूटते सपने की ओर, कोई आता निकट दूर होता जाता भूल-भुलैया में फिर वहीं अपने संशय के साथ


24.11.2003




अंत में


बंद कर देता हूँ अपने को सुनना कानों से हाथों को हटाकर बंद कर देता हूँ कुछ कहना शुरू करता हूँ जानना बिना किताबों के बिना उपदेशों के बिना दिशा सूचक के बिना मार्गदर्शक के बिना नक्शे के बिना ईश्वर के बस जानना



25.10.2004