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गिरगिट / मोहन राणा

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हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बार

देखते एक दूसरे को

जानते हुए भी कि पहचान पुरानी है,

करते इशारा एक दिशा को

वह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है!

वह गर्मियों का भी नहीं लगता,

आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएँ

पर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटा

अनुपस्थित है चिड़ियाँ

कातर आवाजें वहाँ...

कैसे मैं जाऊँ वहाँ कविताएँ सुनने,


हम रुकते हैं पलक झपकाते

झेंपते

जैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलते

कोई जगह

बदलते कोई रंग

कोई चेहरा


27.4.2006