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आत्म-परिचय / दिविक रमेश

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(नाज़िम हिक़मत के प्रति आभार व्यक्त करते हुए, जिन्होंने लिखा था : 'सबसे ख़ूबसूरत बच्चा / अब तक / बड़ा नहीं हुआ')


समन्दर के किनारे

रात होने तक

खड़ा रहा।


आकाश इन बाँहों में

निस्पंद

बंधा रहा।


मेरी छाया

डूबती रही

और

और गहरे।


एक कोयल

मेरे कानों में

गुनगुनाती रही। लगातार

लगातार

यूँ लगा

मैं भी

सागर की तरह

नीला हो गया।


यूँ लगा

मुझ में भी

असंख्य तारे

सफ़ेद खरगोशों से

आ दुबके।

मैं दौड़ आया

अपनी बस्ती में।

और

सबसे उपेक्षित बच्चा

गोद में उठाए

'हिक़मत' की

कल्पना में खो गया


खरगोशों की लाल आँखों में

सूर्योदय-सा

एक ख़याल

रूप लेने लगा--


'दुनिया का

सबसे ख़ूबसूरत बच्चा

अब ज़रूर बड़ा होगा।'