’मध्य रात्रि’ कवितामाला से
और अन्त में तुम बोल उठे ...
नहीं, वैसे नहीं ... झुके हुए घुटने पर –
हाँ, वैसे ही शब्द उच्चरित हुए
और लगे मानो किसी क़ैदी ने कहे हों
तोड़कर ज़ंजीरें, भाग चला जो आँसू भरे –
पावन भोजों की छाया उसके नयन देख रहे,
चारों ओर उसके व्याप्त था मौन।
तमसपुंज भेदकर छाया को चीरता
प्रखर ज्योतिकिरण लिए चमक उठा सूर्य था –
वारुणी का स्वाद ही बदल सा गया था –
वर्तमान का अवसान सा हो चला था –
मायावी लोक हुआ दृष्टि में व्याप्त सा।
और मुझे हत्यारिणी होना बदा था,
ईश्वरी शब्दों को खण्ड-खण्ड करना था,
इसीलिए मैं मन्त्र-मुग्ध-सी मौन रही–
जीवन के वरदान को सुरक्षित रखना था।
मूल रूसी से अनुवाद : रामनाथ व्यास ’परिकर’
और अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
Анна Ахматова
Тринадцать строчек
И наконец ты слово произнес
Не так, как те… что на одно колено -
А так, как тот, кто вырвался из плена
И видит сень священную берез
Сквозь радугу невольных слез.
И вкруг тебя запела тишина,
И чистым солнцем сумрак озарился,
И мир на миг один преобразился,
И странно изменился вкус вина.
И даже я, кому убийцей быть
Божественного слова предстояло,
Почти благоговейно замолчала,
Чтоб жизнь благословенную продлить.
8-12 августа 1963