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ग़लत नम्बर / विस्साव शिम्बोर्स्का

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कला दीर्घा में फ़ोन बज रहा है
अाधी रात को, और वहाँ निपट सुनसान है।
अगर कोई सोया पड़ा होता तो अब तक जाग जाता,
मगर यहाँ तो सिर्फ़ रतजगा करते फ़रिश्ते हैं
और कभी न सोने वाले सम्राट चाँदनी में ज़र्द पड़ते
अपनी साँस रोके शून्य में ताकते हुए,
बस एक अमीर सूदख़ोर की शोख़ बीवी
एकटक बजते टेलिफ़ोन को निहार रही है,
लेकिन नहीं, वह हाथ बढ़ाकर रिसीवर नहीं उठाती,
वह भी औरों की तरह निष्क्रिय बनी हुई है।
सब — अपने लिबास में या बिना लिबास के — अपनी जगह जमे हैं
जैसे बजती घण्टी का उनसे कोई मतलब ही न हो।
यक़ीन करें यह ज़्यादा विकट परिहास है मुक़ाबिल इसके
कि शाही वज़ीर ख़ुद तस्वीर के चौखटे से निकलकर बजते फ़ोन को उठा ले
(हालाँकि वज़ीर के कानों में सिर्फ़ सन्नाटा बजता है)।
यह और बात है कि शहर में कोई ग़लत नम्बर मिलाकर
लगातार घण्टी बजने दे रहा है और भोलेपन से रिसीवर कान से लगाए हुए है —
वह कोई जीवित मानुष है, लिहाज़ा ऐसी भूल करता है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : असद ज़ैदी