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फिर भी ऊपर उठती हूँ मैं / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो

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तुम अपने कड़वे और मनमाने झूठ से
कर सकते हो मुझे इतिहास में दर्ज,
तुम गिरा सकते हो मुझे गहरे कीचड़ में
लेकिन फिर भी धूल की तरह ऊपर उठूँगी मैं।

क्या मेरा दर्प तुम्हें करता है परेशान?
तुम क्यों हो निराशा से घिरे?
कि मेरी चाल मानो मेरे पास हैं तेल-कूप
मौजूद जो मेरे कमरे में।

सूर्य की तरह, चन्द्रमा की तरह
निश्चित रूप से ज्वार-भाटाओं के साथ,
ठीक उम्मीदों की ऊँची छलाँग की तरह,
उठूँगी... ऊपर उठूँगी मैं।

क्या तुम मुझे टूटा हुआ देखना चाहते हो?
मेरा झुका सिर और झुकी निगाहें?
आँसुओं की तरह गिरते मेरे कन्धे –
दुर्बल हुए जो मेरे गहन विलापों से।

क्या मेरा अहंकार तुम्हें करता है आहत?
क्या तुम्हें यह नहीं लगता बहुत असह्‌य?
कि मेरी हँसी मानो मेरे पास हैं स्वर्ण-खानें
मौजूद जो मेरे अपने घर के पिछवाड़े में।

तुम चला सकते हो मुझ पर अपने शब्दों की बन्दूक,
तुम काट सकते हो मुझे अपनी नज़रों से,
तुम मार सकते हो मुझे अपनी घृणा से,
लेकिन फिर भी हवा की तरह ऊपर उठूँगी मैं।

क्या मेरी कामुकता तुम्हें करती है अशान्त?
क्या है यह आश्चर्य की बात –
कि मेरा नृत्य मानो मेरे पास हैं हीरे
मौजूद जो मेरी जंघाओं मध्य?

इतिहास के कलंकित सायों से बाहर
ऊपर उठती हूँ मैं
दर्द से गहराए अतीत से परे
ऊपर उठती हूँ मैं
मैं हूँ उछाल भरा विस्तीर्ण काला महासागर,
मेरे ज्वार-भाटे में ऊपर उठती है महातरंग।
आतंक और भय की रातों को पीछे छोड़
ऊपर उठती हूँ मैं
एक निहायत सुन्दर निर्मल सुबह
ऊपर उठती हूँ मैं
लाते हुए उन उपहारों को जो दिए थे मेरे पुरखों ने
मैं हूँ गुलामों का स्वप्न और उनकी आशा –
ऊपर उठती हूँ मैं
ऊपर उठती हूँ मैं
ऊपर उठती हूँ मैं।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’