दूसरी भाषा में अनूदित की गई
अपनी कविता सुनते हुए
कुछ ऐसा लगता है :
पराए घर में किसी अनजान औरत को
माँ कहकर पुकारते हुए
बोल रही है मेरी बिटिया कुछ-कुछ...
...ज़ोरों की भूख लगी है, जल्दी परोसो.
...कैसी लग रही हूँ मैं यह फ्रॉक पहने हुए?
...बताओ न, चान्दनी को आकाश किसने दिया?
...देखो, मैं चल सकती हूँ तुम्हारी जूती पहनकर!
और मैं चुपचाप, मेहमान की तरह
देख रही हूं केवल प्रशंसा से, कुर्सी पर बैठे हुए;
क्योंकि जवाबों की जवाबदेही मेरी नहीं होती है...
मूल मराठी से अनुवाद : सरबजीत गर्चा