दंत मुक्तावली ज्यों चमके जब ओठ के सीप खुले पड़ते
अंग कदम्ब समान तो है सुख के मकरन्द झरे पड़ते
प्राप्त कहाँ सुख जो पहले अब घेर मुझे तुम ले, जड़ते
नैन सुसीप से आँसू-की बून्दें ये, लाल कहो न, ये क्यों झड़ते ।
भोजन तू न कभी मन से हो किया न पिया मधुक्षीर कभी
पीर तुझे किस बात की है न दिखा था मुझे यह नीर कभी
बाल न भाल-कलेवर को सजते निरखा पट-चीर कभी
घायल कान न कुन्डल हैं न भले मणि-माल-जंजीर कभी ।
बात करो किससे, विहंसो, बन व्याकुल तू क्षण नाम पुकारो
चैंक उठो, जब नींद भरी खुलती गहरी, सब ओर निहारो
देख न कोई भरो सिसकी, हिचकी उभरे, सुत बात न टारो
देव कृपा इस घायल पे, सुत को इस व्याधि से प्राण उबारो !
मुख-पंकज नाल गले पर है दृग-पंखुड़ी हाय मलीन लगे
मकरन्द कहाँ विषबून्द गिरे अलि काजल ना अब संग लगे
नभ नैन से आँसू घटा बरसे हिय भूमि जलामय, जी न लगे
तन-पिंजर में चुप वाणी-विहंगिनी ना दृग-खंजन नीक लगे ।
नंद-यशोमति की सुधि तो मन खींच चले ब्रज को मुझसे
ज्यों कदली वन की सुधि से मदमत्त बने गजराज भसे
लौट चलूँ यह जी करता जब ग्वालन की सुधि-डोर कसे
शावक की सुधि ज्यों खग को मजबूर करे निज नीड़ बसे ।
माँ, यमुना तट कु×ज घने और बैठ कदम्ब की छाँव वहीं
वेणु बजा ब्रज को कर मोहित; खोज रहे, मैं मिला न कहीं
माखनचोर कहाऊँ कहाँ औ मिले अब धेनु चराने नहीं
गोप बिना तड़पूं जस चातक बून्द बिना हो मुमूर्षु मही ।