बात बीच में रोककर मेरी बहन
अचानक कहती है — पता नहीं ये रमज़ान सुकून से गुज़रेंगे या नहीं...
ईद कैसी होगी?
मैं क्या कहता क्या बीत सकता है इस फासिस्ट समय में!
सिवा इसके — बाजी, सिग्नल ख़राब है, घर पहुँचकर लैण्डलाइन से बात करूँगा।
मैंने सुनी उसकी ठण्डी साँस और तीन पुराने लफ्ज़ — अल्लाह ख़ैर करे!
उसने सुना मुझे कहते हुए — खुदा हाफ़िज़!