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संताप / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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सुमन के दोष बस अतना कि, बगिया में खिली गैलै।
पवन के जोस-तेवर तेॅ सभ्भे मांटी में मिली गैलै।
सतैभेॅ तेॅ भला केतना गिरै के अंत कहाँ होतै।
डरी-डरी केॅ ऊ आखिर निडर होये केॅ खड़ा होलै।
सभ्भे के अंत छै निश्चित, अंधरिया रात भी बिततै।
सुक्खोॅ के चाह में पंछी, उड़ी आकाश में गैलै।
समर्पण में तपी केॅ फूल आबेॅ अंगार बनलोॅ छै।
ढोवै कब तक कहो रिश्ता, हृदय संताप बनी गैलै।