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सुख / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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सुख चाह छै मन में, दुख के बंधन खुद कटी जैते।
बादल दुख के, सुख छै निर्मल दुख दिवस हटी जैते।
परेशानी नै दुख सें होय छै कहियोॅ ई बात मानी लेॅ।
समझ के चाबी सें ताला कोय भी बिन बाधा खुली जैतै।

सुख के गंगा मन में बहै तेॅ, नाला के पानी की करतै।
सुख पारस जबेॅ मिलतै तेॅ, दुख भी सोना बनी जैतै।
तबेॅ विधि-विधान के पानी, पत्थर, तूफान की करतै।
अडिग हर हाल में विश्वास केॅ मजबूत करी देतै।

जहाँ गीता के ज्ञान आरोॅ रामायण के छै सुर सरिता।
वहाँ मन शांति लेॅ कुछ ज्ञान के अनुसंधान करी लैतै।
जहाँ वेद, उपनिसद, गीता छै ज्ञान के सागर बनी केॅ,
रतन, मोती भरी केॅ हाथोॅ में जनम साकार करी लैतै।

सुख ही सुख बस जीवन में, जीवन सुखसार बनी जैतै,
फूल सौरभ दान सें जीवन बगिया में फूले-फूल खिलतै।
जागें, जागें रे आदमी हमरोॅ बात ध्यानों सें सुनी लेॅ,
व्यबहार सें ही ई संसार तोरोॅ महिमा गीत के गैतै।

बोलोॅ तोंय अमृत बोली, घोली रस मुस्कान सुनी लेॅ
प्रेम सें तेॅ बस में होय छै महिमामय भगवान सुनी लेॅ।
पर हित जगत में बनाबै छै सच में महान सुनी लेॅ।
बस काम करोॅ अच्छा आपनोॅ महिमा गुणगान सुनी लेॅ।