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शहरवासिनी भारत माता / अमरेन्द्र

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खेतों में अब नहीं दिखाते ऊँचे खड़े मचान
और कहीं ना खड़े बिजूके अपने हाथ उठाए
होरी की तो बात दूर है, धनिया नहीं दिखाए
फस्लें गायब खेतों से हंै, बीजें अन्तरधान ।

जहाँ झूमते गेहूँ-जौ थे, और झूमते धान
वहाँ झूमती नयी किस्म की कोठी, महल, अटारी
हिरनौटा की गर्दन पर यह नये किस्म की आरी
खेत बेच कर शहर जा बसे खेतों के भगवान ।

मेड़ों से अब नहीं खेत, लोहे से बंधे पड़े हैं
नहरें नहीं बहेंगी इनमें, डीजल तेल बहेगा
तुलसी मंजरी का किस्सा अब कोई नहीं कहेगा
खेत-खेत पर धसे हुये अब धन के सौ जबड़े हैं।

कचरे का अम्बार खड़ा है सरसों-तीसी पर
जोर नहीं अब क ख ग का ए-बी-सी-डी पर।