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भारी एक सुनामी / अमरेन्द्र

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गरजी बाढ़, उठा बड़वानल, काँपी थरथर धरती
सागर की लहरों से ऊँची उठती आग भयंकर
रुद्र-कालिका नाँच उठे हों हाथ हाथ में लेकर
भैंस, पलायी खड़ी फसल को, जैसे चर-चर चरती।

संेदायी हो गई झील, और सागर वाकावासी
बस्ती-बस्ती लीन हुयी; ज्यों कच्छप गहरे जल में
जादू का एक शहर खो गया एक मिनट में, पल में
खड़ा हुआ है आग-राख में जलता-सा संन्यासी ।

बची हुई साँसों पर जाने क्या-क्या कल से बीते
जीवन क्षीण दिखेगा पथ पर, विपदा रानी होगी
वह जो उजड़ गयी, क्या फिर से बस पायेगी बस्ती
मृत्यु भूमि पर भरी-भरी है, बाकी सब तो रीते ।

नर की सारी ही ताकत पर भारी एक सुनामी
मैंने भी तुलसी दल कर में लेकर भर दी हामी।