एक स्मारक जो मैंने बनाया नहीं हाथों से,
जहाँ लोग हमेशा-हमेशा आते रहेंगे
जहाँ वह गर्वोन्नत खड़ा है
सिकन्दर की मीनार से भी ऊँचा।
मैं मरूँगा नहीं पूरी तरह — क्योंकि मेरे पवित्र साज में,
मेरी आत्मा मेरी मिट्टी के कर्मों से अधिक जिएगी —
और मेरा मान रहेगा, जब तक इस धरा पर
कविता की पवित्र लौ कहीं एक भी जलती होगी!
मेरी कहानी मेरे विशाल देश में घर-घर कही जाएगी,
मेरे देश की हर ज़ुबान पर मेरा नाम होगा।
अभिमानी स्लावों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
फिर, और — अभी भी अनपढ़ — तुंगूस,
और स्तेपी से प्यार करने वाले कल्मीक भी।
और लम्बे काल तक लोग मुझे याद करेंगे
क्योंकि मेरा साज प्रेम और दया से भरा था
और, एक निर्मम युग में, मैंने स्वाधीनता के गीत गाए थे
और न्याय की अन्धी देवी से करुणा की पुकार की थी।
प्रशंसा और निन्दा से परे
ओ कला की देवी !
पर उस अलौकिक स्वर पर ध्यान देना
जो आघातों से नहीं डरती,
न यश की चाह रखती है,
न मूर्खों के सामने मोती बिखेरती है।
1836
अँग्रेज़ी से अनुवाद : शंकर शरण
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