ख़ौफ़ नाम का परिन्दा
जो दिखाई नहीं देता
जिसका कोई वज़ूद नहीं होता
बेजान होता है वो कमबख़्त
फिर भी सैंकड़ों घोड़ो की
टापों की तरह दौड़ पड़ता है
रग-रग में आधी रात को ।
ऊपर से नीचे तक
कारख़ानों के साइरन - सा
बज जाता है दिल की सोई धड़कनों में
ज्वालामुखी - सा फट उठता है
सीने की चट्टानों पर
भीतर बेहद भीतर
छोटी-छोटी आवाज़ें भी
बिजलियों की तरह कड़क जाती हैं
ख़ामोशी के जह्न में ।
कभी-कभी पूरे ज़िस्म पर
यूँ गुजर जाता है
जैसे पटरियों से कोई रेल गुजरती है
कभी अचानक छिपकली - सा
ऊपर से गिर कर पीठ पर
अपने नाख़ून गड़ा देता है
अपनों के खो जाने का ख़ौफ़
एक पल में कर देता है
ज़िन्दगी को नेस्तनाबूद
और मर कर भी
साँसों के ढेर में दबा दिल
धड़कता रह जाता है।