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ठहराव / गिरधर राठी

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बार-बार देखने लगता था पीछे

उधर उस छोर पर घिसटता आता था सच

इस के और उस के बीच समूचा ब्रह्माण्ड था--

नक्षत्र ग्रह धूमकेतु

आदमी के बनाए उपग्रह

प्रक्षेपास्त्र अणु बम

बू कैंसर टूटी हुई हड्डियाँ

प्रियजन परजन

पीब के पहाड़ नदी ख़ून की

गिरजे स्वर्ण्कलश मंदिर अज़ानें

संतई कमीनगी


पर उस आख़िरी सच की प्रतीक्षा में

ठहरा था

बाल होने लगे थे सफ़ेद कमर टेढ़ी

आँखें नीम-नूर

कंठ तक प्रतीक्षा से भरा हुआ लबालब


’चाहे तो पल भर में कौंध कर आ सकता है’

सुनी इस ने कोई आवाज़


बढ़ो तुम बढ़ते चलो इसी काफ़िले के साथ

मिलेंगे कुछ झूठ कुछ सच बीच-बीच में

गर्चे न होंगे मुकम्मिल

लेकिन तुम्हें छूट यह रहेगी

कि थाम लो किसी को और

किसी को दुत्कार दो

बढ़ो आगे बढ़ो कहा किसी ने

हटोगे तभी होगी जगह इस सराय में

आएंगे और भी बौड़म तुम्हारी तरह

करेंगे प्रतीक्षा जो

आख़िरी इलहाम की

हो कर वयोवृद्ध या शायद अकाल-कवल

वे भी चले जाएंगे