Last modified on 25 मई 2008, at 13:39

वक़्त / अरुण कमल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:39, 25 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल |संग्रह = सबूत / अरुण कमल }} ऎसा ही वक़्त आ गया है ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ऎसा ही वक़्त आ गया है

जब माँ को बच्चे को दूध भी पिलाना

गुनाह है


वे हाथ में जाब लिए घूम रहे हैं चारों ओर

जहाँ कोई गाय रम्भाई

जहाँ किसी बछड़े ने दूब पर मुँह दिया

कि दौड़े हुए आए और धर लिया


बोलना गुनाह

खाँसना गुनाह

आंगन में औरतों का हँसना गुनाह


छुरा भाँजते गुंडे छुट्टा घूम रहे हैं

और अपने ही घर की चौखट पर

बैठा आदमी

मारा जा रहा है


सड़क पार करते

अचानक किसी बात पर हँसते

कहीं कभी कोई भी कत्ल हो जा सकता है


ऎसा ही वक़्त आ गया है


ऎसा ही वक़्त आ गया है

जब गुंडे बेला के फूलों की माला पहन

जै-जैकार करा रहे हैं

जब ज़हर-माहुर फल-फूल रहे हैं

और फूलों की क्यारियों में जल नहीं...