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संस्कृति का संस्कार / अमरेन्द्र

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टूट गये संयुक्त, हुए हैं अलग-अलग अब हम
दस रुपये से काम था होता, अब तो सौ का चक्कर
अलग सिपाही क्या कर लेगा, बल था जब था लश्कर
तब जहाज को खींच रहे थे, अब लोटे में दम ।

तब पकता था एक चूल्हे पर पाँच घरों का भोजन
घर में आये पर-परिजन का निभ जाता था तब तो
अलग हुये, तो घर के जन ही परिजन लगते अब तो
जो कोसों में नप जाता था, आज बना है योजन ।

काँटा-चम्मच का उँगुली से रोज बखेड़ा होता
महँगे डब्बों के भीतर में भूसा भरा हुआ है
यह जो जिन्दा घूम रहा है, सचमुच मरा हुआ है
क्या दरिया का मौज डराता, पास जो बेड़ा होता ?

कटी हुई रेशम की डोरी, सूत उजड़ता जाए
आँधी है तूफान बनी, तब क्या कपोत टिक पाए ।