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सतयुग का स्वप्न / अमरेन्द्र

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कल सपने में देखा मैंने वही पुराना गाँव
अपनी ही जीवन शैली पर रख कर चलते पाँव
ढेकी का ढक-ढक आँगन में, कोल्हू का चर-चों
करघे का संगीत झमाझम, सावन में टर-टों
माँटी की मूरत कुम्हार के सोने का आबा
भड़भूँजे के घर से ले कर लौटा था लावा ।

हड़र-मड़र चक्की का करना, हल-बैलों की टुनटुन
बरगद के नीचे का हटिया, कटि में जैसे रुनझुन
खाट-खटोले, चैकी-बेलन, कलछुन और कजरौटी
सबके घर में देखा मैंने पकते चावल-रोटी
मोची चाचा को देखा जूते की शान बढ़ाते
धोती-साड़ी को बरमूडा कुत्र्ती पर शर्माते ।

श्रम का चैर था फैला-फैला; मुट्ठी भर की चाहें
आँख खुली, तो गाँव नहीं था; थीं हाइवे की राहें।