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वसन्त में शिशिर / अमरेन्द्र

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नहीं दामिनी कभी मरेगी जितना घिरे अमावस
अधियाले में चमक पड़ी हैं ताराओं की आँखें
बाजों की पाँखों-से लगती गोरैयों की पाँखें
सत् का सूर्य बढ़ा आता है। सूली पर हो तामस !

दिल्ली का ही क्या दिल धक धक; पूरा देश दहलता
सुषमा के स्वर में हैं आँसू, जया विलखती-रोती
जब तिहाड़ तक जाग उठा है, कैसे संसद सोती
मैंने देखा, ठण्डा लोहा गलता और पिघलता।

मत वसन्त की करो प्रतीक्षा, जब हो शिशिर-विहार
गली-गली में चैक-चैक पर हो लपटें, हो आगिन
सर्द रात यह बनी हुई है सबके जी पर बाघिन
एक बार फिर भारत जाने नारी शक्ति-हुंकार ।

श्मशानों में प्रेतों का जी, तन-मन हुलस रहा है
रोको उसको; किसका यह मन ऐसे झुलस रहा है!