Last modified on 23 मार्च 2017, at 08:53

धाम और धरा / अमरेन्द्र

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:53, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

साथी, चाँद सितारों के घर जाना बहुत हुआ
नभ की नभगंगा के भीतर तैरे-रुके बहुत
धरती की-सी मिली वहाँ क्या, आती-जाती रुत
या तुमको ही देख चकित थे हारिल-काग-सुआ ?

क्या ऐसी ही पुरवा-पछुआ तुमको मिली हवाएँ
दखनाहा की शीतल साँसें चन्दन वन से आतीं
अलसाई निद्रा में डूबी जग भर को भरमातीं
कैसे-कैसे राग मधुर में गाती खिली हवाएँ ?

वहाँ गये तो दुबला कर के लौटे हो यूँ मीत
मैंने सुना, वहाँ अमृत का झरना ही बहता है
देव वहाँ पर देवी सब के बीच घिरा रहता है
फिर क्यों लौटे हो चेहरे पर लिए हुए यह शीत ?

ऊपरवाले नीचे आए, तुम ऊपर को जाते
देख-देख कर मेरे हारिल-काग-सुआ शरमाते ।